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हिदिबंधट्ठाणपरूवणा
२२५ 8. थीणगिद्धितिय-मिच्छत्त-अणंताणुबंधि०४-तिरिक्खगदि-तिरिक्वाणुल-उज्जोव-णीचागोद सव्वत्थोवा बादरएइंदियपज्जत्तयस्स जहएणो हिदिबंधो । एवं याव मिच्छादिहि ति णेदव्वं । णवरि सम्मादिहि बंधो पत्थि ।
१०. णिद्दा-पचला-छएणोकसाय-असाद-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्म०-समचदु०वएण०४-अगुरुग०४-पसत्थ-तस०४--थिराथिर-सुभासुभ--सुभग-सुस्सर-आदेज्ज०अजस-णिमिणणामाणं सव्वत्थोवा बादरएइंदियपज्जत्तयस्स जहएणो०। एवं पंचिंदिय सएिण० पज्जत्तयस्स उक्कस्सो हिदिबंधो संखेज्जगुणो त्ति ।
११. अपच्चक्खाणावर०-मणुसगदि-ओरालिय०-ओरालिय०अंगो०-वज्जरिसभ०-मणुसाणु० सव्वत्थोवा बादरएइंदियपज्जत्तयस्स जहएणो० । एवं याव पंचिंदिय सणिण मिच्छादिहि हिदिबंधो संखेज्जगुणो त्ति । ण'वरि [ संजदे संजदासंजदे णत्थि । प्ररूपणाके समय कह आये हैं ,उसी प्रकार यहाँ जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
९. स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, तिर्यञ्चगति, तिर्यश्चगति प्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र इनका बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक होता है। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टितक अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनका सम्यग्दृष्टिके बन्ध नहीं होता।
विशेषार्थ-मूल प्रकृति स्थितिबन्धका कथन करते समय बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकसे लेकर संशी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकतक जिस प्रकार अल्पबहुत्व कह आये हैं उसी प्रकार यहां कहना चाहिए । इन प्रकृतियोंका बन्ध सम्यग्दृष्टिके नहीं होता यह स्पष्ट ही है।
१०. निद्रा, प्रचला, छह नोकषाय, असाता वेदनीय, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयशःकीर्ति और निर्माण इन प्रकृतियोका बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक होता है। इस प्रकार आगे पञ्चेन्द्रिय संशी पर्याप्तकके इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होता है, इस स्थानके प्राप्त होनेतक जानना चाहिए ।
विशेषार्थ-यहाँपर भी बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकसे लेकर पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तकतक जिस प्रकार मूल प्रकृति स्थितिबन्धका कथन करते समय अल्पबहुत्व कह पाये हैं उसी प्रकार जानना चाहिए । मात्र इनका बन्ध सम्यग्दृष्टि और संयतके भी होता है इतना विशेष जानकर अल्पबहुत्व कहना चाहिए।
११. अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी इन प्रकृतियोंका बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक होता है। इस प्रकार आगे पञ्चेन्द्रिय संझी मिथ्यादृष्टिके इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होता है, इस स्थानके प्राप्त होनेतक अल्पबहुत्व जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनका बन्ध संयत और संयतासंयतके नहीं होता।
१.यावरि ........"सम्वरथोपा बादरएइंदिय-इति पाठः ।
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