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________________ २२६ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे १२. पच्चक्रवाणावर० ४] सव्वत्थोवा बादरएइंदियपज्ज. जह० । एवं याव पंचिंदिय-सएिण-मिच्छादिहिज्जत्तग त्ति । णवरि संजदे णत्थि ।। १३. इत्थि०-णवुस०-चदुजादि-पंचसंठाण-पंचसंघड-बादाव-अप्पसत्थवि०थावर०४-दूभग-दुस्सर-अणादेज्ज. सव्वत्थोवा बादरएइंदियपज्जत्त० जह । एवं याव असणिण-पंचिंदिय-पज्जत्तयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाधियो । तदो पंचिंदिय-सएिण-पज्जत्तयस्स जह• हिदिवं० संखेज्जगु० । तस्सेव अपज्जत्त जह• हिदिबं० संखेज्जगुः । [ तस्सेव अपज्जत्तयस्स उकस्सओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो।] तस्सेव पज्जत्त० उक्क० ट्ठिदिवं० संखेज्जगु० । १४. णिरय-देवायूर्ण सव्वत्थोवा पंचिंदियस्स सणिणस्स असएिणस्स पज्जत्त. जह० हिदिबं । पंचिंदि० असणिण पज्जत्तयस्स उकस्स० हिदिवं. असंखेज्जगु० । पंचिदिय-सणिण-पज्जत्तयस्स उक्क० हिदिवं. असंखेज्जगु० । विशेषार्थ-इनका अल्पवहुत्व पूर्वोक्त प्रकारसे ही घटित कर लेना चाहिए। मात्र इनका बन्ध असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक ही होता है, इतना विशेष जानकर अल्पबहुत्व कहना चाहिए, क्योंकि इनकी बन्धव्युच्छित्ति चौथे गुणस्थानमें हो जाती है। आगे संयतासंयत और संयत जीवोंके इनका बन्ध नहीं होता। १२. प्रत्याख्यानावरण चतुष्कका बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तीक होता है। इस प्रकार पञ्चेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि पर्याप्त इस स्थानके प्राप्त होनेतक अल्पबहुत्व जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनका बन्ध संयतके नहीं होता है। विशेषार्थ-देशसंयत गुणस्थानतक इन प्रकृतियोंका बन्ध होता है, इतनी विशेषताको ध्यानमें रखकर इनका अल्पबहुत्व पूर्वोक्त विधिसे कहना चाहिए। १३. स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, एकेन्द्रियजाति आदि चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, आतप, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर चतष्क, दर्भग, दस्वर और अनादे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इस प्रकार क्रमसे आगे जाकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे पञ्चेन्द्रिय संक्षी पर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे पञ्चेन्द्रिय संक्षी अपर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे पञ्चेन्द्रिय संज्ञी अपर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे पञ्चेन्द्रिय संज्ञो पर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। विशेषार्थ-इन प्रकृतियोंका बन्ध सम्यग्दृष्टि और संयतके नहीं होता, इसलिए अल्पबहुत्वमेंसे इन स्थानोंके अल्पबहुत्वको कम करके उक्त प्रकारसे इनका अल्पबहुत्व कहना चाहिए,यह उक्त कथनका तात्पर्य है। १४. नरकायु और देवायुका पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय असंशी पर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे पञ्चेन्द्रिय असंही पर्याप्तके इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तके इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रिय संज्ञी और असंझी पर्याप्तके उक्त दोनों आयुओंका जघन्य स्थितिबन्ध दस हजार वर्षप्रमाण होता है। पञ्चेन्द्रिय असंही पर्याप्तके इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है और पञ्चेन्द्रिय संशी पर्याप्तके इनका उत्कृष्ट स्थिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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