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________________ २. उत्तरपगदिहिदिबंधो १. एत्तो उत्तरपगदिट्ठिदिबंधे पुव्वं गमणिज्जं । तत्थ इमाणि चत्तारि अणियोगद्दाराणि भवंति । तं यथा-हिदिबंधहाणपरूवणा णिसेयपरूवणा आबाधाखंडयपरूवणा अप्पाबहुगे त्ति । छिदिबंधट्ठाणपरूवणा २. हिदिवंधहाणपरूवणदाए सव्वपगदीणं चदुअआयु-वेउव्वियछक्क-आहार०आहारअंगोवंग-तित्थयरवज्जाणं सव्वत्थोवा सुहुमस्स अपज्जत्तयस्स हिदिबंधहाणाणि। बादरस्स अपज्जत्तयस्स हिदिबंधहाणाणि संखेज्जगुणाणि । मुहुमस्स पज्जत्तयस्स हिदिबंध० संखेज्जगु० । बादर 'पज्जत्त० हिदिबंध० संखेज्जगु० । एवं मूलपगदिबंधो याव पंचिंदियस्स सणिणस्स मिच्छादिहिस्स पज्जत्तयस्स हिदिबंधहाणाणि संखेज्जगुणाणि त्ति । उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्ध १. इससे आगे उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्धका सर्व प्रथम विचार करते हैं। उसमें ये चार अनुयोगद्वार होते हैं । यथा-स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा, निषेकप्ररूपणा, आबाधाकाण्डकप्ररूपणा और अल्पबहुत्व । विशेषार्थ-मूल्य प्रकृतियाँ आठ हैं और उनमेंसे प्रत्येकके उत्तर भेद अनेक हैं। उन्हें ही यहाँ पर उत्तर प्रकृति शब्द द्वारा कहा गया है । पहले मूल प्रकृति स्थितिबन्धका विस्तार के साथ विवेचन कर आये हैं। अब आगे उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्धका विवेचन करनेवाले हैं। यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इसके अधिकार और क्रम वही हैं जो मूलप्रकृति स्थितिबन्धका विवेचन करते समय कह आये हैं । मात्र यहाँ उन अधिकारों द्वारा उत्तर प्रकृतियोंके स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर विचार किया गया है। स्थितिबन्धस्थानमरूपणा २. अब स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणाका विचार करते हैं । उसको अपेक्षा सूक्ष्म अपर्याप्तके चार आयु, वैक्रियिकषटक, आहारक शरीर, आहारक आङ्गोपाङ्ग और तीर्थकर प्रकृतिके सिवा शेष सब प्रकृतियोंके स्थितिबन्धस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे बादर अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे सूक्ष्म पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे बादर पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं। इस प्रकार पञ्चेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक जीवके स्थितिबन्धस्थान संख्या गुणे हैं। इस स्थानके प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर मूल प्रकृति बन्धके समान अल्पबहुत्व है। विशेषार्थ-कुल बन्धयोग्य प्रकृतियाँ १२० हैं। इनमेंसे नरकायु, देवायु, वैक्रियिक१. मूलप्रती बादर० अपज्जत्त० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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