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________________ विषय-परिचय ४५ अपने आत्मा में, अन्य की आत्मा में या दोनों में स्थित दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन ये असातावेदनीय के आस्रव के कारण हैं। तथा जीवमात्र के प्रति अनुकम्पा, व्रतियों के प्रति अनुकम्पा, दान और सरागसंयम का उचित ध्यान रखना और क्षान्ति व शौच ये सातावेदनीय कर्म के आस्रव के कारण यह उल्लेख परिणामों की जाति का ज्ञान कराने के लिए बहुत ही स्पष्ट है। इससे संक्लेशरूप परिणामों की जाति क्या है और विशुद्ध परिणामों की जाति क्या है, इसका स्पष्टतया बोध होता है। ये दोनों प्रकार के परिणाम एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक प्रत्येक जीव के छठे गुणस्थान तक होते हैं। सातवें आदि गुणस्थानों में प्रमाद का अभाव हो जाने के कारण मात्र विशुद्ध परिणाम ही होते हैं। साधारण नियम यह है कि तिर्यंचाय. मनष्याय और देवाय को छोड़कर शेष सब प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों से होता है और इनसे विपरीत परिणामों से जघन्य स्थितिबन्ध होता है। इसी अभिप्राय को 'गोम्मटसार' कर्मकाण्ड में इन शब्दों में व्यक्त किया है-- 'सव्वविदीणमुक्कस्सओ दु उक्कस्ससंकिलेसेण। विवरीदेण जहण्णो आउगतियवज्जियाणं तु॥' इसलिए प्रश्न होता है कि तीन आयुओं को छोड़कर शेष सब प्रकृतियों का बन्ध जब संक्लेश और विशुद्ध दोनों प्रकार के परिणामों से होता है, तो ऐसी अवस्था में असाता के बन्धयोग्य परिणामों की संक्लेश र साता के बन्धयोग्य परिणामों की विशुद्धि संज्ञा है, यह लक्षण कैसे सुविचारित कहा जा सकता है? समाधान यह है कि संक्लेश परिणाम भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से अनेक प्रकार के होते हैं और विशुद्ध परिणाम भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से अनेक प्रकार के होते हैं। इनमें से उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम असातावेदनीय के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के कारण हैं और जघन्य विशुद्ध परिणाम सातावेदनीय के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के कारण हैं। आगम में जहाँ कहीं प्रशस्त और अप्रशस्त प्रकृतियों का विभाग किये बिना उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों से उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, ऐसा कहा है वहाँ यही अभिप्राय लेना चाहिए। इस विषय को और अधिक स्पष्टता से समझने के लिए यह उल्लेख पर्याप्त है_ 'सादस्स चदुट्ठाणबंधगा जीवा णाणावरणीयस्स जहण्णयं द्विदि बंधति। तिट्ठाणबंधगा जीवा णाणावरणीयस्स अजहण्णाणुक्कस्सयं ट्ठिदि बंधति। विट्ठाणबंधगा जीवा सादावेदणीयस्स उक्कस्सयं द्विदि बंधति। असाद० विट्ठाणबंधगा जीवा सट्ठाणेण णाणावरणीयस्स जहण्णय छिदि बंधति। तिठाणबंधगा जीवा णाणावरणीयस्स अजहण्णभणुक्कस्सयं ठिदि बंधति। चदुट्ठाणबंधगा जीवा असादस्य चेव उक्कस्सिया ट्ठिदिं बंधति।' (महाबन्ध, स्थिति. पृ. २१३) साता के चतुःस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरण कर्म की जघन्य स्थिति का बन्ध करते हैं। त्रिस्थान बन्धक जीव ज्ञानावरण कर्म की अजघन्यानुत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करते हैं। द्विस्थानबन्धक जीव सातावेदनीय की ही उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करते हैं। असाता के द्विस्थानबन्ध जीव स्वस्थान की अपेक्षा ज्ञानावरण कर्म की जघन्य स्थिति का बन्ध करते हैं। त्रिस्थानबन्धकजीव ज्ञानावरण कर्म की अजघन्यानुत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करते हैं। चतुःस्थानबन्धक जीव असाता वेदनीय की ही उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करते हैं। इसमें स्पष्टतः गुड़ और खाँड इस द्विःस्थानिक अनुभाग का बन्ध करनेवाले जीवों को तो सातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थिति का बन्धक कहा है और निम्ब, कांजीर, विष और हलाहल इस चतुःस्थानिक अनुभाग का बन्ध करनेवाले जीवों को असाता वेदनीय की उत्कृष्ट स्थिति का बन्धक कहा है। इससे स्पष्ट है कि सामान्यतः उत्कृष्ट, संक्लिष्ट पद से इन दोनों स्थानों का ग्रहण होता है। इसी विषय को श्वेताम्बर ‘पंचसंगह' में इन शब्दों में व्यक्त किया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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