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________________ ४ ६ महाबन्ध धुवपगईबंधंता चउठाणाई सुभाण इयराणं । दो ठागाइ तिविहं सट्ठाणजहण्णगाईसु ॥ १०६ ॥ (बन्धनकरण ) आशय यह है कि ज्ञानावरण आदि ४७ प्रकृतियों का बन्ध करनेवाले जीव सातावेदनीय, देवगति, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर, औदारिक शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, तीनों आंगोपांग, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी, पघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, त्रसादि दस, तीर्थंकर, तिर्यंचायु, देवायु और उच्च गोत्र, इन परावर्तमान चौंतीस शुभ प्रकृतियों के चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक और द्विस्थानिक अनुभाग को बाँधते हैं । तथा उन्हीं ध्रुव प्रकृतियों का बन्ध करनेवाले जीव असातावेदनीय, तीन वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, नरकायु नरकगतिद्विक, तिर्यंचगतिद्विक, एकेन्द्रिय आदि चार जाति, अन्त के पाँच संस्थान, अन्त के पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि दस और नीचगोत्र, इन परावर्तमान उनतालीस अशुभ प्रकृतियों के द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक अनुभाग को बाँधते हैं । यह अनुभाग स्वस्थान में जघन्य स्थितिबन्ध आदि के होने पर बँधता है । श्वेताम्बर 'कर्मप्रकृति' में भी यह विषय इसी प्रकार से निबद्ध किया गया है। किन्तु 'महाबन्ध' के उक्त उल्लेख से इस कथन में अन्तर है । 'महाबन्ध' में विशुद्ध और संक्लेश परिणामों के साथ केवल साता और असाता के अन्वयव्यतिरेक की व्यवस्था की गयी है और यहाँ सब शुभ और अशुभ प्रकृतियों के साथ अन्वयव्यतिरेक की व्यवस्था की गयी है । किन्तु विचार करने पर 'महाबन्ध' की व्यवस्था ही उचित प्रतीत होती है। कारण कि गुणस्थान प्रतिपन्न जीवों में जहाँ केवल विवक्षित अशुभ प्रकृति का बन्ध न होकर उसकी प्रतिपक्षभूत शुभ प्रकृति का ही बन्ध होता है, वहाँ पर संक्लेश और विशुद्ध दोनों प्रकार के परिणामों के सद्भाव में उस प्रकृति का बन्ध सम्भव है । उदाहरणार्थ, चतुर्थ गुणस्थान ' मात्र पुरुषवेद का बन्ध होता है। यहाँ यह तो कहा नहीं जा सकता कि इस गुणस्थान में केवल विशुद्ध परिणाम ही होते हैं और यह भी नहीं कहा जा सकता कि यहाँ केवल संक्लेश परिणाम ही होते हैं। परिणाम तो दोनों प्रकार के होते हैं, पर यहाँ स्त्रीवेद और नपुंसकवेद का बन्ध सम्भव न होने से मात्र पुरुषवेद का ही बन्ध सम्भव है । यदि यह कहा जाय कि उत्कृष्ट स्थिति से क्रम से हानि होते हुए जघन्य स्थिति को बाँधनेवाले जीव के परिणामों की 'विशुद्धि' संज्ञा है और जघन्य स्थिति से क्रम से वृद्धि होते हुए उपरिम स्थितियों को बाँधनेवाले जीव के परिणामों की 'संक्लेश' संज्ञा है सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति का बन्ध करानेवाले परिणामों को छोड़कर शेष मध्यम स्थितियों का बन्ध करानेवाले सब परिणाम संक्लेश और विशुद्धि उभयरूप प्राप्त होते हैं । परन्तु ऐसा मानना उचित नहीं है; क्योंकि एक ही परिणाम संक्लेश और विशुद्धि उभयरूप नहीं हो सकता है। इसलिए साता और असाता के बन्ध के साथ इन परिणामों की जिस प्रकार व्याप्ति घटित होती है, उस प्रकार अन्य प्रकृतियों के बन्ध के साथ नहीं है । यही कारण है कि 'महाबन्ध' में सब संसारी जीवों को दो भागों में विभक्त कर दिया है - साताबन्धक और असाताबन्धक । साताबन्धक जीव तीन प्रकार के हैं - चतुःस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और द्विस्थानबन्धक । इसी प्रकार असाताबन्धक जीव भी तीन प्रकार के हैं - द्विस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और चतुःस्थानबन्धक। इनमें जो साता के चतुःस्थानबन्धक जीव होते हैं वे सर्वविशुद्ध होते हैं, जो त्रिस्थानबन्धक जीव होते हैं वे संक्लिष्टतर होते हैं और जो द्विस्थानबन्धक जीव होते वे इनसे भी संक्लिष्टतर होते हैं। इसी प्रकार जो असाता के द्विस्थानबन्धक जीव होते हैं वे सर्वविशुद्ध होते हैं, जो त्रिस्थानबन्धक जीव होते हैं वे संक्लिष्टतर होते हैं और जो चतुःस्थानबन्धक जीव होते हैं वे इनसे भी संक्लिष्टतर होते हैं । यहाँ साता के चतुःस्थानबन्धक जीव को और असाता के द्विस्थानबन्धक जीव को सर्वविशुद्ध और शेष सबको संक्लिष्टतर कहा गया है। इस प्रकार संक्लेशरूप और विशुद्धिरूप परिणामों में भेद होकर भी उनका उल्लेख स्थितिबन्ध के अनुसार सर्वविशुद्ध और संक्लिष्टतर इन्हीं शब्दों के द्वारा किया जाता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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