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________________ जहण्णट्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा ४१७ २७६. वेउव्विय-वउव्वियमि० उक्कस्सभंगो। आहार-आहारमिस्स. मणजोगिभंगो। कम्मइगका० उक्कस्सभंगो। २७७. इत्थिवेदे० पंचणा-चदुदंस०-चदुसंज-तित्थय-पंचंत• जह• अज० पत्थि अंतरं। णिद्दा-पचला-असादा-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुच्छ--पंचिंदियजादि-तेजा०-का-समचदुः-वएण०४-अगु०४-पसत्थवि०-तस०४-थिराथिर-सुभासुभ[सुभग]-सुस्सर-आदे-[अजस-णिमि० जह० जह• अंतो०, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४-इथि०-णवुस०-तिरिक्खगदि-एइंदि०-पंचसंठा-पंचसंघ-तिरिक्वाणु आदाउज्जो०--अप्पसत्थ०--थावर-भग-दुस्सर-अणादे०-णीचा० जह० अज० उक्कस्सभंगो। अहक जह० जह• अंतो०, उक्क पलिदो० सदपुधत्तं । अज• जह० एग०, उक० पुव्वकोडी देस। सादावे-पुरिस-जस-उच्चा० जह• हिदि. पत्थि अंतरं। अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । णिरयायु० उकस्सभंगो। तिरिक्वमणुसायु० जह• हिदि० जह पत्थि अंतर । अज० अणुभंगो । देवायु० जह० हिदि० जह० दसवस्ससहस्साणि सादि०, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं । अज. २७६. वैक्रियिक काययोग और वैक्रियिक मिश्र कायययोगमें उत्कृष्टके समान भङ्ग है। आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोगमें मनोयोगी जीवोंके समान भङ्ग है तथा कार्मणकाययोगमें उत्कृष्टके समान भङ्ग है। २७७. स्त्रीवेदमें पाँच ज्ञानोवरण, चोर दर्शनावरण, चार संज्वलन, तीर्थकर और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धको अन्तरकाल नहीं है। निद्रा,प्रचला, असाता वेदनीय, हास्य,रति, अरति, शोक,भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर,कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर,आदेय,अयश-कीर्ति, और निर्माण प्रकृतियोंकेजघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्महर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्य प्रथक्त्व है। स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुवन्धी चार, स्त्रोवेद, नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चानुपूर्वी, अोतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नोचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल उत्कृष्टके समान है। आठ कषायोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्य पृथक्त्व है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। साता वेदनीय, पुरुषवेद, यश-कीर्ति और उच्चगोत्रके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। नरकायुका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। तिर्यञ्चायु और मनुष्योयुके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अजघन्य स्थितिवन्धका अन्तर काल अनुत्कृष्टके समान है। देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्य पृथक्त्व है। तथा अजघन्य स्थितिबन्धका १. मूलप्रतौ सुस्सर० श्रादा० णिमि० श्रादे० जह० इति पाउः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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