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________________ ४१८ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे अणु भंगो। वेउव्वियछक्क०-तिएिणजा-मुहुम०--अपज्ज०-साधार० जह. अज० उक्क भंगो । मणुसगदिपंचगस्स जह० अज० उक्कभंगो। आहार०२ जह० हिदि. णत्थि अंतर। अजजह• अंतो०, उक्क कायहिदी. । २७८. पुरिस पंचणा-चदुदंस०-चदुसंज-पंचंत० जह० अज० णत्थि अंतर। थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४-इत्थि०-णवुस-पंचसंठा-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०-दृभग-दुस्सर-अणादे०-णीचागो० जह० अज० उक्कस्सभंगो । णिद्दा-पचलाअसादा०-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगु०-पंचिंदि०-तेजा०-क०-समचदु०-वएण०४अगु०४-पसत्थवि०-तस०४-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग--सुस्सर-अणादे०--अजस०णिमि० जह० हिदि० उक्कस्सभंगो। अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । [अट्ठक० अन्तर काल अनुत्कृष्टके समान है। वैक्रियिक छह, तीन जाति, सूक्ष्म अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर उत्कृष्टके समान है। मनुष्यगति पञ्चकके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर उत्कृष्टके समान है। आहारकद्विकके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्त मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थिति प्रमाण है। विशेषार्थ-स्त्रीवेदमें प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध आपकश्रेणी में होता है और इसके सिवा अन्यत्र अजघन्य स्थितिबन्ध होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। मात्र तीर्थंकर प्रकृतिका जघन्य स्थितिबन्ध उपशम श्रेणीमें प्राप्त होता है,पर यहाँ इसके भी जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल सम्भव नहीं है, इसलिए यहाँ इसका भी निषेध किया है। स्त्रीवेद की उत्कृष्ट कायस्थिति सौ पल्यपृथक्त्वप्रमाण है । जिस संशी स्त्रीवेदी जीवने इसके प्रारम्भ में और अन्तमें जघन्य स्थितिबन्ध किया और मध्यमें अजघन्य स्थितिबन्ध किया, उसके दूसरे दण्डकमें कही गई निद्रा आदि प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ पल्यपृथक्त्व उपलब्ध होता है, इसलिए यह उक्त प्रमाण कहा है। आठ कषायोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर इसी प्रकार ले आना चाहिये । तथा संयमासंयम और संयमका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि होनेसे यहाँ पाठ कषायोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है । क्योंकि संयमासंयममें अप्रत्याख्यानावरण चारका और संयममें प्रत्याख्यानावरण चारका बन्ध नहीं होता। सातावेदनीय आदि चार प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें उपलब्ध होता है, इसलिए यहाँ इनके अन्तरकालका निषेध किया है। फिर भी ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ है इसीलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालके उपलब्ध होने में कोई बाधा नहीं आती । सामान्यतः प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है, इसलिए यह उक्त प्रकारसे कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। २७८. पुरुषवेदमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार,स्त्रीवेद,नपुंसकवेद, पाँच संस्थान,नपुंसकवेद, पाँचसंहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल उत्कृष्टके समान है। निद्रा, प्रचला, असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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