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________________ ४१६ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अंतो०, उक्क० बावीसं वाससहस्साणि देसू० । अज० जह• एग०, उक्क० अंतो०। २७५. ओरालियमि० उक्कस्सभंगो। केण कारणेण उक्कस्सभंगो ? येण बादरएइंदिए वि अधापवत्तो वा से काले सरीरपज्जत्ती जाहिदि त्ति वा सामित्तं दिएणं तेण कारणेण उक्कस्सभंगो । णवरि दो आयु० तसअपज्जत्तभंगो । और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम बाईस हजार वर्ष है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-औदारिककाययोगमें क्षपक प्रकृतियाँ, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकणिमें होता है। तथा इसके सिवा अन्यत्र इस योगमें अजघन्य स्थितिबन्ध होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। इस योगमें नरकायु और देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है,यह स्पष्ट ही है। सातावेदनीय, पुरुषवेद और यशःकोर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए यहाँ इनके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। वैक्रियिक छहका जघन्य स्थितिबन्ध सर्वविशुद्ध असंहीके होता है, पर इसके योगपरिवर्तन होता रहता है, इसलिए यहाँ इनके भी जघन्य स्थितिबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है । तथा ये सब प्रतिपक्ष प्रकृतियाँ है,इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । तिर्यञ्चगतिचतुष्कका जघन्य स्थितिबन्ध अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके होता है और वायुकायिक जीवोंमें औदारिक काययोगका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन हजार वर्ष है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन हजार वर्ष कहा है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध बादरपृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंके भी होता है और वहाँ औदारिक काययोगका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है। इसलिए यहाँ शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम बाईस हजार वर्षे कहा है। शेष कथन सुगम है। २७५. औदारिक मिश्रकाययोगमें उत्कृष्टके समान भङ्ग है। यहाँ उत्कृष्टके समान भङ्ग किस कारणसे है ? यतः बादर एकेन्द्रिय जीवमें भी अधःप्रवृत्त होता है अथवा तदनन्तर समयमें शरीर पर्याप्तिको प्राप्त करेगा,उसे जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व प्राप्त होता है, इस कारणसे उत्कृष्टके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि दो आयुओंका भङ्ग त्रसअपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ-औदारिक मिश्रकाययोगमें उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तरकालका विचार दो प्रकारसे किया है। बादर एकेन्द्रिय जीवके भी वह प्रकार सम्भव है, इसलिए यहाँ भी सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल उत्कृष्टके समान जानना चाहिए। यह उक्त कथनका तात्पर्य है। मात्र यहाँ बन्धको प्राप्त होनेवाली तिर्यश्चाय और मनुष्यायुके सम्बन्धमें कुछ विशेषता है, जिसका निर्देश मूलमें अलगसे किया ही है। बात यह है कि अपर्याप्त अवस्थाके बाद भवान्तरमें भी औदारिक मिश्रकाययोगका सातत्य बना रहता है, इसलिए प्रस अपर्याप्तकोंमें उक्त दोनों आयुओंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल कह आये हैं, उसी प्रकार वह हाँ भी बन जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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