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________________ १९२ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे ज्जत्तभंगो। वेउब्वियमि० आयु. पत्थि । आहार-आहारमि० सत्तएणं क. णिरयभंगो । कम्मइ० सत्तएणं क. तिएिणवडि-हाणिबं. पत्थि अंतरं । अवहि० जहएणु० एगस। ३७८. इत्थि०-पुरिस. सत्तएणं क. बेवडि-हाणि० जह० एग०, उक्क. अंतो । संखेज्जगुण-वडि]हाणिबंध० जह० एग०, उक्क० पुवकोडिपुधत्तं । अवहि० जह० एग०, उक० तिरिण सम । इत्थि' असंखेज्जगुणवडिहाणि० जहएणु. अंतो० । एवं पुरिस० । वरि असंखेज्ज वड्डि. जह• एग०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । असंखेज्जगुणहाणि जह• अंतो० उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । णवुस० सत्तएणं क० तिरिणवड्डि-हाणि० ओघं । अवट्ठिद० जह० एग०, उक्क० चत्तारि समयं । असंखेज्जगुणवड्डि-हाणि० जहण्णु० अंतो । अवगद० णाणावर०-दसणावर०-अंतराइ० संखेज्जभागवडि-हाणि-संखेज्जगुणवडि-हाणि वेदणीय-णामागोदाणं तिएिणवडि-हाणि मोह. संखेजभागवडि-हाणि जहएणु० अंतो० । औदारिक मिश्रकाययोगी और वैक्रियिक मिश्रकाययोगी जीवों में अपने पदोंका अन्तर पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान है। वैक्रियिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें आयुकर्मका बन्ध नहीं होता। इनमें तथा आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सात कमौके अपने पदोंका अन्तर नारकियोंके समान है। कार्मणकाययोगी जीवों में सात कौके तीन वृद्धिबन्ध और तीन हानिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अवस्थितबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। ३७८. स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंगें सात कोंके दो वृद्धिबन्ध और दो हानिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। संख्यातगुणवृद्धिबन्ध और संख्यातगुणहानिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है। स्त्रीवेदमें असंख्यातगुणवृद्धिबन्ध और असंख्यातगुणहानिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इन दोनों पदोंका अन्तरकाल इसी प्रकार पुरुषवेदमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणवृद्धिबन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ सागरपृथक्त्व है। असंख्यातगुणहानिबन्धका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। नपुंसकवेदवाले जीवों में सात कौके तीन वृद्धिबन्ध और तीन हानिबन्धका अन्तर ओघके समान है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। असंख्यातगुणवृद्धिबन्ध और असंख्यातगुणहानिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। अपगतवेदवाले जीवों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मके संख्यातभागवृद्धिबन्ध, संख्यातभागहानिबन्ध, संख्यातगुणवृद्धिबन्ध और संख्यातगुणहानिबन्धका. वेदनीय. नाम और गोत्रकर्मके तीन वृद्धिबन्ध और तीन हानिबन्धका तथा मोहनीय कर्मके संख्यातभागवृद्धिबन्ध और संख्यातभागहानिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा १. मलप्रतौ संखजगुणहाणिवंधं० इति पाठः । २. मूलप्रतौ इस्थि० संखेजगुण-इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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