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वह्निबंधे अंतरं
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अपजत • सत्तणं क० तिरिणवडि-हारिण० जह० एग०, उक्क० अंतो ० ' । अवद्वि० जह० एग०, उक्क० चत्तारिसमयं ।
३७५. पंचमरण०-पंचवचि० सत्तणं क० तिरिणवड्डि हारिण- वडिदबं० रियभंगो । असंखेज्जगुणवड्डि-हारिण० जहण्णु० अंतो० । अवत्तव्वं णत्थि अंतरं । एवं कोधादि०४ । वरि अवहि० चत्तारिसम० । श्रवत्तव्वं पत्थि । लोभ मोह ० अत्तव्वं गत्थि अंतरं ।
३७६. कायजोगि० सत्तणं क० असंखेज्जभागवड्डि-हारिण-असंखेज्जगुरणवाडीअदिबं० जह० एग०, उक्क० अंतो० । दो वड्डि-हारिण० ओघं । संखेज्जगुणहारिण० म० भंगो | अवत्तव्वं पत्थि अंतरं ।
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३७७. ओरालियका० मरण० भंगो | ओरालियमि ० [ वेडव्वियमि० ] पंचिंदियअप
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अपनी काय स्थिति प्रमाण कहना चाहिए। त्रस अपर्याप्त जीवों में सात कर्मोके तीन वृद्धिबन्ध, तीन हानिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है ।
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३७५. पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंके सात कमौके तीन वृद्धिबन्ध, तीन हानिबन्ध और श्रवस्थितबन्धका अन्तर नारकियोंके समान है । श्रसंख्यातगुणवृद्धिबन्ध और असंख्यातगुणहानिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा वक्तव्यबन्धका अन्तर काल नहीं है । इसी प्रकार क्रोधादि चार कषायवाले जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके अवस्थितबन्धका उत्कृष्ट अन्तर चार समय है; तथा इनके अवक्तव्यबन्ध नहीं होता । मात्र लोभ कषायमें मोहनीय कर्मका अवशन्यबन्ध होता है, पर उसका अन्तर काल नहीं उपलब्ध होता ।
विशेषार्थ - एकेन्द्रिय या विकलत्रयके मरकर विकलत्रय या पञ्चेन्द्रियोंमें उत्पन्न होने पर भवके प्रथमादि समयोंमें मनोयोग और वचनयोग नहीं होता, इसलिए इन योगवाले जीव अवस्थितबन्धका उत्कृष्ट अन्तर नारकियोंके समान दो समय कहा है, किन्तु चारों कषायवाले जीवोंके उक्त प्रकारसे मरकर अन्य पर्याय में उत्पन्न होते समय एक कषायका सद्भाव बना रहता है, इसलिए इनके अवस्थितबन्धका उत्कृष्ट अन्तर चार समय घटित हो जानेके कारण वह उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है ।
३७६. काययोगी जीवोंमें सात कर्मोंके असंख्यात भागवृद्धिबन्ध, असंख्यात भागहानिबन्ध श्रसंख्यात गुणवृद्धिबन्ध और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। दो वृद्धिवन्ध और दो हानिबन्धका अन्तर शोधके समान है । श्रसंख्यातगुणहानिबन्धका अन्तर मनोयोगियोंके समान है । इनके वक्तव्यबन्धका अन्तरकाल नहीं है । विशेषार्थ - किसी एक काययोगी जीवने उपशमश्रेणिसे उतरकर अनिवृत्तिकरण में श्रसंख्यातगुणवृद्धिबन्ध किया और एक समयका अन्तर देकर वह मरकर देव हो गया । इस प्रकार असंख्यात गुणवृद्धिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय देखकर यह श्रन्तर उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है ।
३७७. श्रदारिककाययोगी जीवोंमें सब पदका अन्तर मनोयोगियोंके समान १. मूलप्रती अंतो० । श्रवहिद० जह० एग० उक्क० अंतो० । श्रद्वि० इति पाठः ।
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