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________________ पदणिक्खेवे जहश्रन्यावद्दुर्ग १८१ श्रोधिदं० - सम्मादि० वेदगस०-उवसम० - सासण० सम्मामि० । mart fureभंगो यदि सत्था सामित्तं दिज्जदि । अथ मिच्छत्ताभिहस्स तदो बड्डी' संखे ०गुणं । खरगे रियभंगो | सरि० सव्वत्योवा उक० अवद्वाणं । उक्क० बड्डी सं०गु० । उक० हाणी विसेसाहिया । एवं उक्कस्सं समत्तं । क० ३५७. जहा पगदं । दुवि - ओघे० दे० । श्रघेण सरणं जहरिया बड़ी जहरिया हाणी जहरणयपत्रद्वारणं तिरिण वि तुल्लाणि । एवं या अणाहारगति । वरि अवगदवे० सव्वत्योवा सत्तएवं कम्मारणं जहfarar artit rarणं । जह० बढी सं०गु० । एवं समसंप व कम्मारणं । एवं असमतं । एवं पदशिवखेवं समते । तासंयत, श्रवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यण्टषिकाण्वधि, सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवीके जानना चाहिए। किन्तु इस विशेषता है कि यदि स्वस्थान की अपेक्षा स्वामित्व प्राप्त किया जाता है, तो नारकियोंके समान अपबहुत्व है और यदि मिथ्यात्वके अभिमुख हुए इन जीवोंका अल्पबहुत्व प्राप्त किया जाता है, तो वृद्धि संख्यातगुणी है । क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों में उक्त पदोंका अल्पबहुत्व नारकियोंके समान है । श्रसंज्ञी जीवोंमें उत्कृष्ट श्रवस्थान सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट वृद्धि संख्यातगुणी है। इससे उत्कृष्ट हानि विशेष अधिक है। विशेषार्थ - यहाँ आभिनिवोधिकज्ञानी से लेकर सम्यग्मिथ्यादृष्टि तक जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं, इन सब मार्गणावाले जीवोंका मिथ्यात्व गुणस्थान में भी गमन सम्भव है । उसमें भी सासादन गुणस्थानवाले तो नियमसे मिध्यात्वमें जाते हैं । इसलिए इन मार्गणाओं में अल्पबहुत्व दो प्रकारका प्राप्त होता है। जबतक ये मिध्यात्वके श्रभिमुख नहीं होते हैं, तब तक इनमें नारकियोंके समान अल्पबहुत्व है । अर्थात् सात कर्मोकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है और इससे उत्कृष्ट हानि व उत्कृष्ट अवस्थान ये दोनों तुल्य होकर विशेष अधिक हैं। और जब ये मिथ्यात्व अभिमुख होते हैं, तब अल्पबहुत्व इस प्रकार होता है- सात कर्मोंकी उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान दोनों तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं और इससे उत्कृष्ट वृद्धि संख्यातगुणी है । यहाँ ओघ और आदेश से आयुकर्मका अल्पबहुत्व नहीं कहा है सो इसका कारण यह है कि आयुकर्मके स्थितिबन्धमें इस तरहकी वृद्धि, हानि और अवस्थान सम्भव नहीं है । उसमें केवल प्रथम समय के बन्धके बाद हानि ही होती है, इसलिए उसमें अल्पबहुत्व घटित नहीं होता । इस प्रकार उत्कृष्ट श्रल्पबहुत्व समाप्त हुआ । ३५७. अब जघन्य अल्पबहुत्वका प्रकरण है । इसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । श्रधसे सात कर्मोंकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान ये तीनों ही तुल्य हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपगतवेदी जीवोंमें सात कर्मोंकी जघन्य हानि और अवस्थान सबसे स्तोक है। इनसे जघन्य वृद्धि संख्यातगुणी है । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों में छह कर्मोंका अल्पबहुत्व है । इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इस प्रकार पदनिक्षेप समाप्त हुआ । १. मूलप्रतौ वड्डी समं गुणं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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