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________________ १८० महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अप्पाबहुगं ३५३. अप्पाबहुगं दुवि०- -जहएणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । दुवि-- ओघे० आदे० । ओघे० सत्तएणं कम्माणं सव्वत्थोवा उक्कस्सिया वड्डी । उक्कस्सयमवहाणं विसेसाहियं । उक्क० हाणी विसेसा । ओघभंगो कायजोगि-कोधादि०४-मदि०सुद०-असंज०-अचक्खु०-भवसि०-अब्यवसि०-मिच्छादि०-पाहारग त्ति । ३५४. णिरएसु सत्तएणं क. सव्वत्थोवा उक्कस्सिया वड्डी । उक्कस्सिया हाणी उक्कस्सयमवहाणं च दो वि तुल्ला विसे । एवं सव्वाणं अणाहारग त्ति । वरि तिएणं मिस्सगाणं सत्तएणं क. सव्वत्थोवा उक्कस्सिया हाणी । उक्कस्सिया वड्डी अवहाणं च दो वि तुल्लाणि संखेज्जगु० । ३५५. कम्मइ०-अणाहा. सत्तएणं क. सव्वत्थोवा उक्कस्सयमवहाणं । उक्क० वड्डी० सं०गु० । उक्क० हाणी विसे । अवगद० सत्तएणं क. सव्वत्थोवा उक्कस्सिया हाणी । उक्क० वड्डी अवहाणं असं०गु० । णवरि घादीणं संखेज्जगुणाए। एवं सुहुमसं० छएणं क । णवरि सव्वेसिं घादीणं भंगो। ३५६. आभि०-सुद०-ओधि० सत्तएणं क० सव्वत्थोवा उक्क० हाणी अवहाणं । उक्क० वड्डी सं०गु० । एवं मणपज्ज-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार-संजदासंजद ३५३. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । ओघसे सात कर्मोंकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट अवस्थान विशेष अधिक है। इससे उत्कृष्ट हानि विशेष अधिक है। इसी प्रकार ओघके समान काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। ३५४. नारकियों में सात कर्मोंकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान ये दोनों तुल्य होकर विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक सबके अल्पबहुत्व जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि तीनों मिश्रयोगवाले जीवोंके सात कर्मोंकी उत्कृष्ट हानि सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान ये दोनों तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं। ३५५. कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवों में सात कौका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे स्तोक है । इससे उत्कृष्ट वृद्धि संख्यातगुणी है और इससे उत्कृष्ट हानि विशेष अधिक है। अपगतवेदी जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट हानि सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान असंख्यातगुणे हैं। इतनी विशेषता है कि घाति कौकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान संख्यातगुण है। इसीप्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें छह कौके उक्त पदोंका अल्पबहुत्व है। इतनी विशेषता है कि इनके सब कर्मोके उक्त पदोंका अल्पबहुत्व घातिकौके समान है। ३५६. आभिनिबोधिकहानी, श्रुतक्षानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात कमौकी उस्कृष्ट हानि और अवस्थान सबसे स्तोक है। इससे उस्कृष्ट वृद्धि संख्यातगुणी है । इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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