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________________ २९५ महाबंधे दिदिबंधाहियारे तित्थयर० जह० ट्ठिदि० कस्स० १ अण्ण. अपुव्व० उवसम० परभवियणामारणं बंधचरिमे वट्ट० । मणुसअपज्जत्तगे पढमपुढविभंगो। १२१. देवगदीए देवेसु णिरयोघं । वरि एइंदिय-आदाव-थावर० असाद भंगो । एवं भवण-वाणवेत० । वरि तित्थयरंणत्थि । जोदिसिय-सोधम्मीसाण. विदियपुढविभंगो । णवरि एइंदिय-आदाव-थावर० इत्थिवेदभंगो। जोदिसिय तित्थयरं पत्थि । सणक्कुमार याव सहस्सार त्ति विदियपुढविभंगो । प्राणद० गवगेवज्जा त्ति तं चेव । वरि तिरिक्वायु० तिरिक्खगदितियं च पत्थि । अणुदिस याव सव्वट्ठा ति पंचणा०-छदंसणा-सादावे०-बारसक०-पुरिस-हस्स-रदि-भय-दुगु-मणुसगदी० एवं चेव पसत्यादिणामपगदीओ उच्चा०-पंचंत० जह० हिदि कस्स० ? अण्ण स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अपूर्वकरण उपशामक जो परभवसम्बन्धी नामकर्मकी प्रकृतियोंके बन्धके अन्तिम समयमें अवस्थित है, वह स्वामी है। मनुष्य अपर्याप्तक जीवों में अपनी प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका खामी पहिली पृथिवीके समान है। विशेषार्थ-जिन २२ प्रकृतियोंका नौवें और दसवें गुणस्थानमें बन्ध होता है,वे यहाँ क्षपक प्रकृतियाँ कही गई हैं। वे ये हैं-पाँच शानावरण, चार दर्शनावरण, साता वेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, यश कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय । यतः क्षपक श्रेणिकी प्राप्ति मनुष्यगतिमें ही होती है, अतः मनुष्यों में इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व ओघके समान कहा है।शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके स्वामीकानिर्देश अलग-अलग किया ही है। यहाँ मनुष्यिनियोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी उपशामक अपूर्वकरण जीव कहा है । इसका कारण यह है कि जो तीर्थङ्कर होता है, उसके जन्मसे पुरुषवेदका ही उदय होता है,ऐसा नियम है । अतएव जो तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध कर रहा है और स्त्रीवेदका उदय है,उसका उपशम श्रेणि पर आरोहण करना बन जाता है और इसी अपेक्षासे मनडियनी अपूर्णकरण उपशामकको तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कहा है। १२१. देवगतिमें देवोंमें अपनी प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें एकेन्द्रिय पातप और स्थावर प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी असाता प्रकृतिके बन्धके स्वामीकेसमान है। इसी प्रकार भवनवासी और व्यन्तर देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके तीर्थङ्कर प्रकृति नहीं है। ज्योतिषी और सौधर्म-ऐशान कल्पके देवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी दूसरी पृथिवीके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें एकेन्द्रिय, आतप और स्थावर प्रकृतियों के बन्धका खामी स्त्रीवेदके बन्धके स्वामीके समान है। तथा ज्योतिषीदेवोंमें तीर्थंकर प्रकृति नहीं है । सानत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें अपनी सब प्रकृतियों के जघन्य स्थिति बन्धका स्वामी दूसरी पृथिवीके समान है। पानत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तक वही जीव स्वामी है। इतनी विशेषता है कि इनके तिर्यश्च श्रायु और तिर्यञ्चगतित्रिकका बन्ध नहीं होता । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें पाँच मानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति और इसी प्रकार नामकर्मकी प्रशस्त आदि प्रकृतियाँ, उञ्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतरदेव जो साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। असाता वेदनीय, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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