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जहण्ण-सामित्तपरूवणा सागार-जा. तप्पाओग्गविमुद्ध० । असादा-अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस जह० हिदि० कस्स० १ अएण. सागार-जा० तप्पाओग्गविसु । मणुसायु० जह• हिदि. कस्स० १ अएण. सागार-जा० तप्पाअोग्गसंकिलि।
१२२. एइंदिएस पंचणा-णवदंसणा-सादावे-मिच्छत्त-सोलसक-पुरिसवेहस्स-रदि-भय-दुगु-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-का--समचदु०--ओरालि अंगो०बजरिसभ०-वएण०४-अगुरु०४-पसत्यवि०-तस०४-थिरादिछ०-णिमिण-पंचंत. जह हिदि. कस्स. १ अएण• बादर० सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदस्स सागारअरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश कीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव जो साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव जो साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है, वह मनु. व्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है।
विशेषार्थ-देवों में असंही जीव मरकर उत्पन्न होता है और इसके प्रथम व द्वितीय समयमें असंझीके योग्य जघन्य स्थितिबन्ध होता है। यही विशेषता नरकमें भी होती है, इसलिए देवोंमें अपनी प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका स्वामी नारकियोंके समान कहा है । मात्र तीर्थंकर और दो आयुओका जघन्य स्थितिबन्ध पर्याप्त अवस्थामें जिस प्रकार नार. कियोंके कहा है,उसी प्रकार यहां कहना चाहिए । किन्तु नरकमें एकेन्द्रिय, आतप और स्थापर इन तीन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता और देवोंके होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी जिस प्रकार असाताप्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कहा है, उसी प्रकार यहां कहना चाहिए । असंशी जीव मरकर देवोंमें उत्पन्न होता हुआ भवनवासी और व्यन्तर देवों में ही मरकर उत्पन्न होता है, इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी सामान्य देवोंके समान कहा है। मात्र इनके तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता। आगे सहस्रार कल्पतक दूसरी पृथिवीसे जघन्य स्वामित्वमें कोई विशेषता नहीं है, इसलिए यहां सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी दूसरी पृथिवीके समान कहा है। विशेषता इतनी है कि ज्योतिषी देवोंके तीर्थकर प्रकृति का बन्ध नहीं होता और ऐशान कल्पतक एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर प्रकृतिका बन्ध होता है । सो इन तीन प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी जिस प्रकार दूसरी पृथिवीमें स्त्रीवेदके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी घटित करके बतलाया है,उसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। आनतादिकमें तिर्यश्चायु, तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका बन्ध नहीं होता। शेष पूर्वोक्त प्रकृतियोंका होता है। सो इनमें भी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व दूसरी पृथिवीके समान घटित हो जाता है, अतः यहां भी जघन्य स्वामी दूसरी पृथिवीके समान कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है ।
१२२. एकेन्द्रियों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलहकषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रवृषभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, प्रस चतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर बादर एकेन्द्रिय जो सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, साकार जागत है, सर्व विशुद्ध है और जघन्य स्थितिबन्धमें प्रव
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