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________________ जहरण कालपरूवणा ५५ ८४. मणुस ३ जह० जह० तो ० । अज० जह० एग०, उक्क० सगहिदी ० | मणुसअपज्ज०. सत्तएां क० जह० जह० एग०, उक्क० बेसम० । अज० खुदाभव० विसमयू, उक्क० तो ० । ८५. देवाणं णिरयोघं । भवण० वाणवें पढमपुढविभंगो । गवरि सगहिदी० । जोदिसिय याव सव्वह त्तिउक्करसभंगो । ८६. सव्वएइंदिएस सत्तणं क० जह० तिरिक्खोघं । अज० जह० एग०, उक्क० संखेज्जा लोगा । बादर० अंगुलस्स सखेज्जदि० । पज्जत्ते संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । बादर पज्ज० जह० एगसमयं, उक्क० तो ० | सुहुमेइंदि० जह० एग०, उक्क० अंगुलस्स असंखे० । पज्जत्तापज्ज० जह० एगस०, उक्क० तो ० । ८४. मनुष्यत्रिमें सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । मनुष्य अपर्याप्तकों में सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल दो समय कम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - मनुष्यत्रिक में सात कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणी में उपलब्ध होता है और वह अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है। इसीसे यहाँ इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन सुगम है । ८५. देवोंमें सामान्य नारकियोंके समान काल है । भवनवासी और व्यन्तरोंमें पहली पृथिवीके समान काल है । इतनी विशेषता है कि यहाँ अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कहते समय अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिए। ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें इन्हींके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कालके समान काल कहना चाहिए । ८६. सब एकेन्द्रियों में सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका काल सामान्य तिर्यञ्चौके समान है । जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है । इनके बादरोंमें अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । बादर पर्याप्तकों में अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है । बादर पर्याप्तकों में अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सूक्ष्म एकेन्द्रियों में अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इनके पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - सामान्य एकेन्द्रियोंमें अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल जिस प्रकार तिर्यश्वों में घटित करके बतला आये हैं, उस प्रकार से घटित कर लेना चाहिए। तथा एकेन्द्रियके शेष श्रवान्तर भेदों में यह काल उस उसकी काय स्थिति जान कर समझ लेना चाहिए । मात्र सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें यह काल अपनी कायस्थिति प्रमाण प्राप्त न होकर गुलके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण उपलब्ध होता है, इतना विशेष जानना चाहिए । शेष कथन स्पष्ट ही है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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