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________________ २६ महाबन्ध ३. कर्म क्या है कर्म क्या है? विचार करने पर ज्ञात होता है कि जीव का स्पन्दन तीन प्रकार का होता है- कायिक, वाचनिक और मानसिक । जीव शरीर से कुछ-न-कुछ क्रिया करता है, वचन से कुछ-न-कुछ बोलता है और मन से कुछ-न-कुछ सोचता है। ये तीन क्रियाएँ हैं जो प्रत्येक के अनुभव में आती हैं। ये बाह्य हैं। इनके सिवाय तीन आभ्यन्तर क्रियाएँ भी होती हैं जिन्हें योग कहते हैं । 'कायवाङ्मनः कर्म योगः ।' - ( तत्त्वार्थसूत्र ६, १1) काय, वचन और मन का व्यापार योग है ।' योग का दूसरा नाम स्पन्दन है । काय के निमित्त से जीव की स्पन्दन क्रिया को काययोग कहते हैं। वचन के निमित्त से जीव की स्पन्दन क्रिया को वचनयोग कहते हैं और मन के निमित्त से जीव की स्पन्दन क्रिया को मनोयोग कहते हैं । काय, वचन और मन आलम्बन हैं और जीव की स्पन्दन क्रिया कर्म है। जीव की यह स्पन्दन क्रिया यों ही समाप्त नहीं हो जाती, किन्तु जिन भावों से यह स्पन्दन क्रिया होती है, उसका संस्कार अपने पीछे छोड़ जाती है। 'ये संस्कार चिरकाल तक स्थायी रहते हैं, इसका दृष्टान्त हमारे लिए अपरिचित नहीं है। हम जिसे स्मृति कहते हैं, जिसके फलस्वरूप पूर्वानुभूत वस्तु का स्मरण होता है, वह संस्कार के सिवाय और है ही क्या ? स्मृति की यह करामात हम प्रतिदिन देखते हैं । प्राकृतिक जगत् में भी संस्कार के कुछ कम दृष्टान्त नहीं हैं । फोनोग्राफ यन्त्र के समीप यदि कोई गीत गाया जाय, तो वह गीत संस्कार के रूप में उस यन्त्र में रक्षित रहता है। पीछे युक्ति से उसका उद्बोधन करने पर वही गीत पुनः श्रुतिगोचर होने लगता है'।' किन्तु इन संस्कारों का आधार जीव नहीं माना जा सकता, क्योंकि जीव का संसार पुद्गल के आलम्बन से होता है । अतः जिन भावों से स्पन्दन क्रिया होती है, उनके संस्कार क्षण-क्षण में जीव द्वारा गृहीत पुद्गलों में ही संचित होते रहते हैं । इसीलिए अकलंकदेव ने कहा है 'यथा भाजनविशेषे प्रक्षिप्तानां विविधरसबीजपुष्पफलानां मदिराभावेन परिणामः तथा पुद्गलानामपि आत्मनि स्थितानां योगकषायवशात् कर्मभावेन परिणामो वेदितव्यः ।' - तत्त्वार्थवार्तिक, ८, २ जिस प्रकार पात्र विशेष में डाले गये अनेक रसवाले बीज, पुष्प और फलों का मदिरारूप से परिणमन होता है, उसी प्रकार आत्मा में स्थित पुद्गलों का भी योग और कषाय के कारण कर्मरूप में परिणमन होता है । यद्यपि पुद्गलों की जातियाँ अनेकर हैं, पर वे सब पुद्गल इस काम नहीं आते। मात्र कार्मण नामक पुद्गल ही इस काम आते हैं। ये अति सूक्ष्म और सब लोक में व्याप्त हैं । जीव स्पन्दन क्रिया द्वारा प्रति समय इन्हें ग्रहण करता है और अपने भावों के अनुसार इन्हें संस्कारित कर कर्मरूप से परिणमाता है । 'कर्म' शब्द तीन अर्थ में प्रयुक्त होता है- (१) जीव की स्पन्दन क्रिया, (२) जिन भावों से स्पन्दन Jain Education International १. 'कर्मवाद और जन्मान्तर' द्रष्टव्य है । २. पुद्गलों की मुख्य जातियाँ २३ हैं; यथा-अणुवर्गणा, संख्याताणुवर्गणा, असंख्याताणुवर्गणा, अनन्ताणुवर्गणा, आहारवर्गणा, तैजसवर्गण, अग्राह्यवर्गणा, भाषावर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, मनोवर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, कार्मणवर्गणा, ध्रुववर्गणा, सान्तरनिरन्तरवर्गणा, शून्यवर्गणा, प्रत्येकशरीरवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा, बादरनिगोदवर्गणा, शून्यवर्गणा, सूक्ष्मनिगोदवर्गणा, शून्यवर्गणा और महास्कन्धवर्गणा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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