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________________ कर्ममीमांसा २७ क्रिया होती है, उनके संस्कार से युक्त कार्मण पुद्गल और (३) वे भाव जो कार्मण पुद्गलों में संस्कार के कारण होते हैं। जीव की स्पन्दन क्रिया और भाव उसी समय निवृत हो जाते हैं, किन्तु संस्कारयुक्त कार्मण पुद्गल जीव के साथ चिरकाल तक सम्बद्ध रहते हैं। ये यथायोग्य अपना काम करके ही निवृत्त होते हैं। ये कालान्तर में फल देने में सहायता करते हैं, इसलिए इन्हें द्रव्यकर्म कहते हैं और इसी से इनकी द्रव्य-निक्षेप के तद्व्यतिरिक्त भेद में परिगणना की जाती है। अदृष्ट, भाग्य, विधि, भवितव्य और दैव ये द्रव्यकर्म के नामान्तर हैं और कहीं-कहीं इन नामों के अर्थ में व्यत्यय भी देखा जाता है। कर्म का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-'यत् क्रियते तत् कर्म' अर्थात् जो किया जाता है, वह कर्म है। संसारी जीव के रागादि परिणाम और स्पन्दन क्रिया होती है, इसलिए ये दोनों तो उसके कर्म हैं ही, किन्तु इनके निमित्त से कार्मण नामक पुद्गल कर्मभाव (जीव की आगामी पर्याय के निमित्त भाव) को प्राप्त होते हैं, इसलिए इन्हें भी कर्म कहते हैं। कहा भी है 'जीवपरिणामहेदूं कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति। पग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि॥' (समयप्राभृत, ८०) जीव के रागादि परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल कर्मरूप से परिणमन करते हैं और पुद्गल कर्मों का निमित्त पाकर जीव भी रागादि रूप से परिणमन करता है। यह कर्म (द्रव्य-कर्म) का सुस्पष्ट अर्थ है। इसके द्वारा हम संसार में होनेवाली अपनी विविध अवस्थाओं का नाता जोड़ते हैं। ४. कर्मबन्ध के हेतु हम देख चुके हैं कि जीव की, कायिक, वाचनिक और मानसिक तीन प्रकार की स्पन्दन क्रिया होती है। उसका नाम कर्म है। किन्तु यह क्रिया अकस्मात् नहीं होती। इसके होने में जीव के शुभाशुभ भाव कारण पड़ते हैं। जीव के प्रति समय शुभ या अशुभ भाव होते हैं। कभी वह किसी को इष्ट मान उसमें राग करता है और कभी किसी को अनिष्ट मान उसमें द्वेष करता है। उसके इन भावों की सन्तति यहीं समाप्त नहीं होती, किन्तु वह प्रति समय अनेक प्रकार से प्रस्फुटित होती रहती है। प्राचीन ऋषियों ने क्रिया के साथ इनकी पाँच जातियाँ मानी हैं-मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। १. कहाँ किस अर्थ में किस शब्द का प्रयोग किया जाता है, इसका ठीक तरह से ज्ञान कराना निक्षेप का काम है। इसके मुख्य भेद चार हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। किसी का नाम रखना नामनिक्षेप है। इसमें उस शब्द से ध्वनित होनेवाले क्रिया और गुण नहीं देखे जाते। उदाहरणार्थ-किसी का नाम महावीर रखने पर उसमें गुण-धर्म नहीं देखे जाते। एक पदार्थ की दूसरे पदार्थ में स्थापना पर तदनुकूल वचन-व्यवहार करना स्थापनानिक्षेप है। उदाहरणार्थ-महावीर की प्रतिमा को महावीर मानना। द्रव्य की जो अवस्था आगे होनेवाली है, उसका पहले कथन करना द्रव्यनिक्षेप है। यथा जो आगे आचार्य होनेवाला है, उसे पहले से आचार्य कहने लगना द्रव्यनिक्षेप है। तथा जो साधना सामग्री आगामी काल में कार्य के होने में सहायक होती है, उसका अन्तर्भाव भी द्रव्यनिक्षेप में होता है। वर्तमान अवस्था से युक्त पदार्थ को उसी नाम से पुकारना भावनिक्षेप है; यथा पढ़ाते समय अध्यापक कहना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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