SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्ममीमांसा २५ हिरण्यगर्भ ने अपने शरीर के दो भाग किये और आधे से पुरुष और आधे से स्त्री बन गया। उस स्त्री में उसने विराट् पुरुष की सृष्टि की। 'मैंने प्रजाओं की सृष्टि की इच्छा से अति दुष्कर तपस्या करके दस महर्षियों को उत्पन्न किया।..... इस प्रकार मेरी आज्ञा से इन महात्माओं ने अपने तपयोग से कर्मानुरूप स्थावरजंगम की सृष्टि की। इस पर प्रश्न यह उठता है कि ब्रह्मा या ईश्वर के मन में इस क्रम से विश्व की रचना का विचार क्यों आया? उसने जिस क्रम से आदि में पशु, पक्षी, मत्स्य, सरीसृप और मनुष्य की उत्पत्ति की थी, आज भी उसी क्रम से वह उनकी उत्पत्ति क्यों नहीं करता? क्यों नहीं वह वन्ध्या या पतिविहीना स्त्रियों को कम-से-कम एक-एक पुत्र दे देता है जिससे वे अपने वन्ध्यापन या पति के अभाव के दुख को भूल जाएँ। वे मनुष्य जो कुष्ठ से जर्जर हो रहे हैं या जो धनाभाव के कारण पशुओं का जीवन बिता रहे हैं, उन्हें क्यों नहीं ऐसे साधन जुटा देता है, जिनका आलम्बन पाकर वे अपने कष्ट को कुछ कम करने में समर्थ हों। उनके पाप ईश्वर को ऐसा नहीं करने देते, इस कथन में कुछ भी सार नहीं है, क्यों कि पुण्य के समान पाप का निर्माण भी तो उसी ने किया है? उसने पाप का निर्माण ही क्यों किया? एक यथार्थवादी होने के नाते विचार करने से यही ज्ञात होता है कि इस प्रकार विश्व की उत्पत्ति मानना कोरी कल्पना है। वे दर्शन जो ईश्वरवादी माने जाते हैं उनसे भी इस कल्पना का समर्थन नहीं होता। ईश्वरवाद का समर्थन करनेवाले मुख्य दर्शन दो हैं-एक न्याय और दूसरा वैशेषिक। किन्तु इनका विचार इस सष्टिक्रम को स्वीकार नहीं करता। इस प्रकार विचार करने पर ज्ञात होता है कि विश्व की यह रचना अनादि है। थोड़ा-बहुत जो उसमें समय-समय पर परिवर्तन दिखलाई देता है, उसमें किसी की इच्छा कारण न होकर परस्पर में सम्बद्ध घटनाक्रम ही उसके लिए उत्तरदायी है। सूर्य नियत समय पर उगता है और नियत समय पर अस्त होता है। इसमें किसी अज्ञात शक्ति का हाथ नहीं है। जगत् का यह क्रम अनादि काल से इसी प्रकार से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। जिन विचारकों का जगत् के इस स्वाभाविक क्रम की ओर ध्यान गया है, उन्होंने विश्व की यथार्थ स्थिति का विश्लेषण करके विश्व में स्थित अनन्त पदार्थों के संयोग और स्वभाव को भी इसका कारण माना है। जीव और कर्म का ऐसा स्वभाव है जिससे अनादि काल से परस्पर सम्बद्ध हो रहे हैं और जब तक उन्हें परस्पर बन्ध के कारणों का संयोग मिलता रहेगा, तब तक वे बन्ध को प्राप्त होते रहेंगे। जीव और कर्म के अनादि सम्बन्ध की चर्चा करते हुए 'गोम्मटसार' कर्मकाण्ड में लिखा 'पयडी सील सहावो जीवंगाणं अणाइसंबंधो। कणयोवले मलं वा ताणत्थित्तं सयं सिद्धं ॥२॥ कनकोपल के मल के समान जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है। इसके अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, वह स्वतःसिद्ध है। 'ब्रह्मसूत्र' में संसार की अनादिता इन शब्दों में स्वीकार की है___ 'न कर्माविभागात् इति चेत् ? न; अनादित्वात् ।' - (ब्रह्मसूत्र २, १, ३५) इसका शंकरभाष्य है 'नैष दोषः, अनादित्वात् संसारस्य। भवेद् एष दोषो यदि आदिमान् संसारः स्यात् । अनादौ तु संसारे बीजाङ्कुरवत् हेतुहेतुमद्भावेन कर्मणः सर्ववैषम्यस्य च प्रवृत्तिर्न निरुद्धयते।' इसमें स्पष्टतः संसार की अनादिता स्वीकार की गयी है। इससे जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि सिद्ध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy