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________________ २४ महाबन्ध 'गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायते। तेहिं दु विसयग्गहणं तत्तो रागो य दोसो वा ॥१२॥ जायदि जीवत्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि।' संसार में स्थित जीव के राग, द्वेष और मोहरूप परिणाम होते हैं। उग्के कारण कर्म बँधते हैं। कर्मों से गतियों में जन्म लेना पड़ता है। इससे शरीर मिलता है। शरीर के मिलने से इन्द्रियाँ होती हैं। इनसे यह जीव विषयों को ग्रहण करता है। विषयों को ग्रहण करने से राग-द्वेषरूप परिणाम होते हैं। यह संसार का एक चक्र है। इसमें जो जीव स्थित है उसकी ऐसी अवस्था होती है। प्रश्न है कि यह जीव संसार दशा को क्यों प्राप्त होता है। जब राग-द्वेष के विना कर्मबन्ध नहीं हो सकता है और कर्मबन्ध हुए बिना राग-द्वेष नहीं हो सकता, तब जीव की यह अवस्था कैसे होती है? समाधान यह है कि संसार की यह चक्र-परम्परा बीज-वृक्ष या पिता-पुत्र के समान अनादि काल से चली आ रही है। बीज से वृक्ष होता है और वृक्ष से बीज। यह कोई नहीं कह सकता कि इनमें से किसका प्रारम्भ सर्व प्रथम हुआ। हम तो इनका ऐसा ही सम्बन्ध देखते हैं। इससे अनुमान होता है कि इनकी यह परम्परा अनादि है। इसी प्रकार जीव के संसार के कारणभूत राग-द्वेष और कर्मबन्ध की परम्परा को भी अनादिकालीन मानना पड़ता है। यद्यपि वर्तमानकाल में विकासवाद के सिद्धान्त को माननेवाले यह कहते हैं कि मनुष्य अपनी प्रारम्भिक विकास की अवस्था में बन्दर था और धीरे-धीरे उसे यह अवस्था प्राप्त हुई है। विकासवाद का सिद्धान्त कुछ भी क्यों न हो; किन्तु इससे उक्त मान्यता में कोई बाधा नहीं आती। अतीत काल में जहाँ भी जाकर हम प्राणियों की उत्पत्ति के क्रम का विचार करते हैं, वहाँ हमें यही मानना पड़ता है कि जिस क्रम से इस समय प्राणियों की उत्पत्ति होती है, उसी क्रम से अतीत काल में उनकी उत्पत्ति होती रही होगी। यह नहीं हो सकता कि पहले उनकी उत्पत्ति बिना माता-पिता के या बिना बीज-वृक्ष के होती थी और अब इनकी उत्पत्ति इस क्रम से होने लगी है। यद्यपि इस व्यवस्था से ईश्वरवादी सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि विश्व की उत्पत्ति का मुख्य कारण ईश्वर है। ईश्वर के मन में यह इच्छा हुई कि 'एकोऽहं बहुः स्याम' अर्थात् 'मैं एक बहुत होऊँ।' और फिर उसने विश्व की सृष्टि की। इसकी विस्तृत चर्चा मनुस्मृति और दूसरे वैदिक पुराण-ग्रन्थों में की है; वहाँ लिखा है 'यह संसार पहले तम प्रकृति में लीन था, इससे यह दिखलाई नहीं देता था। सर्वत्र गाढ निद्रा की-सी अवस्था थी। तब अव्यक्त स्वयम्भू अन्धकार का नाशकर पंचमहाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) को प्रकट करते हुए स्वयं व्यक्त हुए...... । अनेक प्रकार के जीवों की सृष्टि की। इच्छा से उस परमात्मा ने ध्यान करके सर्वप्रथम अपने शरीर से जल उत्पन्न किया और उसमें शक्तिरूप बीज डाला। वह बीज सूर्य के समान चमकने वाला सोने का-सा अण्डा बन गया.....। उस अण्डे में वह ब्रह्मा एक वर्ष तक रहा। तब उसने आप ही अपने ध्यान से उस अण्डे के दो टुकड़े कर डाले। ब्रह्मा ने उन दो टुकड़ों से स्वर्ग और प्रथिवी का निर्माण किया। मध्य में आकाश, आठों दिशाएँ और जल का शाश्वत स्थान समुद्र का निर्माण किया। फिर आत्मा से मन और मन से अहंकार तत्त्व को प्रकट किया। साथ ही बुद्धि, तीनों गुण (सत्व, रज और तम) और विषयों को ग्रहण करनेवाली पाँचों इन्द्रियों को क्रमशः उत्पन्न किया। ....."फिर उस ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में वेद के शब्दों से सबके अलग-अलग नाम और कार्य नियत कर दिये। और उनकी संस्थाएँ बना दीं। सनातन ब्रह्मा ने यज्ञसिद्धि के लिए अग्नि, वायु और सूर्य से क्रमशः जुर्वेद और सामवेद इन तीनों को प्रकट किया। फिर समय, समय के लिए विभाग, नक्षत्र, ग्रह, नदी, समुद्र और पहाड़ बनाये। १. 'जैनजगत्' में प्रकाशित भदन्त आनन्द कौशल्यायन के लेख से उद्धृत। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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