SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 332
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उक्कस्स-सामित्तपरूवणा २७९ देवायु० उक्कल हिदि० कस्स० ? अण्ण० मिच्छादि० सम्मादि सागार०-जा० तप्पाओग्गविसुद्ध० । णिरयगदि-वेउव्विय अंगो०-णिरयाणुपु० उक० टिदि० कस्स: ? अण्ण तिरिक्ख० मणुस० मिच्छादि० सागार-जा. उक०सकिलि । देवगांद [ एइंदि-बीइंदि० तेइंदि-चदुरिदिय ]-जादि-देवाणुपु०-आदाव-थावर---सुहुम-- अपज्जा-साधार० उक्क० हिदि० कस्स० १ अएण तिरिक्व० मणुस० मिच्छादि० सागार-जा० तप्पाओग्गसंकिलि । 'णीलाए तित्थयर० उक्क० हिदि० कस्स० ? अएण. मणुसस्स तप्पाओग्गसंकिलि । काऊए णिरयोघं ।। १०६. तेऊए पंचणा०-णवदंसणा-असादा -मिच्छत्त-सोलसक०-णस०अरदि-सोग-भय-दुगु-तिरिक्वगदि-एइंदि० याव अंतराइग ति तिरिक्खगउत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टि यासम्यग्दृष्टिजो साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है,वह देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । नरकगति वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वी प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है १ अन्यतर तिर्यञ्च और मनुष्य जो मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है और उत्कृष्ट संक्लेशपरिणामवाला है,वह उक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। देवगति, एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रियजाति, देवगत्यानुपूर्वी, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तिर्यश्च और मनुष्य जो मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है, वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। नीललेश्यामें तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणाम वाला है,वह तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । कापोत लेश्यामें तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी नारकियोंके समान है। विशेषार्थ-कृष्ण, नील और कापोत लेश्या चतुर्थ गुणस्थान तक होती हैं, इसलिए इनमें श्राहारकद्विकका बन्ध नहीं होता । शेष ११८ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । कृष्ण लेश्यामें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी नपुंसकवेदके समान बतलाया है सो इसका कारण यह है कि नपुंसकवेदमें भी देवगतिके सिवा तीन गतिके जीव यथायोग्य उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं और वही बात यहाँ भी है । मात्र देवायु इसका अपवाद है। कारण कि नपुंसकवेद नौवें गुणस्थान तक होता है, इसलिए उसमें देवायुका श्रोध उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बन जाता है,पर कृष्ण लेश्यामें देवायुका ओघ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव नहीं है। कारण कि यह लेश्या चौथे गुणस्थानतक होती है। उसमें भी अविरत सम्यग्दृष्टिकी अपेक्षा द्रव्यलिङ्गी साधु मिथ्यादृष्टिके देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अधिक होता है, इसलिए कृष्ण लेश्यामें विशुद्ध परिणामवाला मिथ्यादृष्टिजीव देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कहा है। नील और कापोत लेश्यामें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका निर्देश मूलमें किया ही है । एक बात यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य है और वह यह कि नरकगतिमें कृष्ण लेश्याके समान नील लेश्यामें भी तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता। इसलिए इस लेश्यामें तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी सम्यग्दृष्टि मनुष्य कहा है। १०६. तेजो लेश्यामें पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, आसाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति और एकेन्द्रिय जातिसे १. मूलप्रतौ णीला च तित्थ- इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy