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________________ २७८ महाबंधे दिदिबंधाहियारे उक्क० हिदि० कस्स० १ अएण. मणुसस्स सागार-जा० उक्क० संकिलि. असंजमाभिमुहस्सा । असंजद० मूलोघं । एवरि देवायु० मदि०भंगो।। १०४. चक्खु०-अचक्खु० मूलोघं । श्रोधिदं० अोधिणाणिभंगो । १०५. किरणाए णवुसगभंगो। णवरि देवायु० उक्कहिदि० कस्स० अण्ण० मिच्छादि० सागर-जा० तप्पाओग्गविसुद्धस्स । पील-काऊणं पंचणागवदंसणा-असादा०-मिच्छत्त-सोलसक० एवं तिरिक्खगदिसंजुत्ताओ सव्वाअो उक्क० हिदि कस्स० ? अण्ण० णेरइय० मिच्छादि० सागार-जा० उक्क० हिदि० संविलि। सादादीणं पि तं चेव भंगो । णवरि तप्पागोग्गसंकिलि० । आयूणि ओघ । णवरि जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है और असंयमके अभिमुख है,वह तीर्थका प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। असंयत जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थिति. बन्धका स्वामी मूलोधके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें देवायुका ग मत्यक्षानियोंके समान है। विशेषार्थ-सूक्ष्म साम्परायसंयत जीवों में जो उपशम श्रेणिसे उतरकर सूक्ष्मसाम्पराय संयत होते हैं और उसमें भी जो अनन्तर समयमें अनिवृत्तिकरणको प्राप्त हते हैं,उनके ही वहाँ बँधनेवाली प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव होनेसे ऐसे जीव ही उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामी कहे हैं। यहाँ कुल १७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है, जिनका ना निर्देश मूलमें किया ही है। संयतासंयत मनुष्य और तिर्यंच दो गतिके जीव होते हैं। यहाँ कुल ६७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है, इसलिए इनमेंसे तीर्थङ्कर प्रकृतिको छोड़ कः ६६ प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी उक्त दोनों गतियोंका जीव कहा है। मात्र थैकर प्रकृतिका तिर्यश्रगतिमें नहीं होता. इसलिए उसके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वमी मनुष्यगतिका जीव कहा है। उत्कृष्ट स्वामित्वसम्बन्धी शेष विशेषताएँ मूलमें कही हीहैं। ____१०४. चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी जीवोंमें आठों कर्मोंके उत्कास्थितिबन्धका स्वामी मूतोधके समान है । अवधिदर्शनी जीवों में अवधिज्ञानियोंके समान भन है। ' विशेषार्थ चक्षुदर्शन और अयक्षुदर्शन बारहवें गुणस्थान तक होते हैं, इसलिए इनमें श्रोधके समान सब अर्थात् १२० प्रकृतियोंका बन्ध होता है। अवधिर्शन चौथे गुणस्थानसे बारहवें गुणस्थानतक होता है, इसलिए इसमें असंयत सम्यग्दृष्टिके बन्धको प्राप्त होनेवाली ७७ और आहारकद्विक इन ७९ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। शेष कान स्पष्ट ही है। १०५. कृष्णलेश्यामें नपुंसकवेदियोंके समान भङ्ग है। इली विशेषता है कि इनमें देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मिथ्या जो साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है,वह देवायुके उत्कृष्ट स्थितिन्धका स्वामी है। नीललेश्या कापोत लेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातादिनीय, मिथ्यात्व और सोलह कषाय तथा इसी प्रकार तिर्यश्चगति संयुक्त सब प्रकृतियोंके उकृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर नारकी जो मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है, त्कृिष्ट स्थितिका बन्ध कर रहा है और संक्लेश परिणामवाला है,वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितेबन्धका स्वामी है। साताआदिक प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी यही जीव है। इतत विशेषता है कि तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला उक्त जीव सातादिक प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्नका स्वामी है। आयुकर्मकी प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी ओघके समान है। इती विशेषता है कि देवायुके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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