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________________ उक्कस्स- सामित्तपरूवणा २७७ पंचरणा० चदुदं ० -सादावे ० - जसगि ० उच्चागो० - पंचंतरा० उवसामगस्स परिवदमाणस्स से काले अणिट्टी १०२. मुहुम संपरा ० उक्क० द्विदि० कस्स० ? अएण रोहिदि ति । १०३. संजदासंजद० पंचणा० छदंसणा ० - असादा० अट्ठक० - पुरिस०-अरदिसोप-भ -भय-दुगु० - देवर्गादि-पंचिंदिय० - वेडव्विय० -तेजा ० क० - समचदु० - वेडव्वि० अंगो० वण्ए०४- देवारपु० - अगु०४- पसत्थवि ० -- तस ०४- अथिर-- असुभ - सुभग-- मुस्सर-आदे० अजस० - णिमिरण - उच्चागो०- पंचंत० उक्क० हिदि० कस्स० ? अण्ण० तिरिक्ख० मरणुस - सागार - जा० उक्क० संकिलि० मिच्छत्ताभिमुहस्स । सादावे ० - हस्स-रदि-थिरसुभ-जसंग ० उक्क० ट्ठिदि० कस्स ० १ अरण० सत्थाणे तप्पा ओग्गसंकिलि० । देवायु० उक्क० द्विदे० कस्स० १ अरण० तिरिक्ख० मणुस० तप्पाओग्गविसुद्ध० । तित्थय ० विश्नार्थ - मन:पर्ययज्ञान में प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें बन्धको प्राप्त होनेवाली ६३ प्रकृतियाँ और आहारकद्विक इन ६५ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामी संबंधी विशेषताका निर्देश मूलमें किया ही है। संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थपना संयत जीवोंके कथनमें मन:पर्ययज्ञानीके कथनसे कोई विशेषता नहीं है, क्योंकि ये छठे गुणस्थानमें होते हैं । मात्र मन:पर्ययज्ञानमें प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके उत्तष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका कथन करते समय असंयमके सम्मुख होने पर ऐसा कहे और रक्त संयमोंमें मिथ्यात्वके सम्मुख होने पर ऐसा कहे । कारण स्पष्ट है । परिहारविशुद्धि र च्युत होकर जीव सामायिक या छेदोपस्थापनाको प्राप्त होता है, इसलिए इसमें प्रथम दरक के स्वामीका कथन करते समय इन दोनों संयमोंके सम्मुख हुए जीवके उत्कृष्ट स्वामित्व रहना चाहिए । I १०२. सूक्ष्साम्पराय संयत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, साता वेदनीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अशामक जीव जो उपशम श्रेणिसे गिर रहा है और तदनन्तर समय में श्रनिवृत्तिकरण गुणस्तनको प्राप्त होगा, वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है १०३. संयतास्यत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, आठकषाय, पुरुषवेद, अरति शोक, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरी, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णं चतुष्क, देवगति प्रायोम्यानुपूर्वी, गुरुलघुतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, स चतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रदेय, अयशःकी, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तिर्यञ्च और मनुष्य जो साकार जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है औ मिथ्यात्वके श्रभिमुख है, वह जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट · स्थितिबन्धका स्वामी है । रातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धव स्वामी कौन है ? अन्यतर संयतासंयत जीव जो स्वस्थानमें अवस्थित है और तत्प्रायोग्य संप्लेश परिणामवाला है, वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । देवायुके उत्दृष्टस्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तिर्यञ्च और मनुष्य जो तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है, वह देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य जो साकार For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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