SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे C 0 ●-- १००. मणपज्जवणाणीसु पंचरणा० - इदंसणा असादा० चदुसंज० - पुरिसवे ० अरदि- सोग-भय-दुगु० - देवर्गादि - पंचिंदि० - वेड व्विय० - तेजा० क० - समचदु० -- वेडव्वि ० अंगो०-वण्ण०४- देवाणुपु० - अगुरु ०४- पसत्थवि ० -तस० : ४- अथिर-सुभ-सुभग- सुस्सरआदे०- ० अजस० - रिणमिण - उच्चागो० पंचंत० उक्क० द्विदि० कस्स० १ अरण० पमत्तसंजदस्स सागार - जा० उक्क० संकिलि० उक्कस्सए द्विदिबंधे वट्टमाणस्स असंजमा - भिमुस्स चरिमे उकस्सए विदिबं० । सादावे ००-हस्स-रदि-थिर- सुभ-जसगित्ति ० उक्क० द्विदि० कस्स० १ अरण० पमत्तसंज० सत्थाणे सागार - जा० तप्पात्रोग्गसंकिलि० । २७६ १०१. देवायु० - आहार० - आहार • अंगो०- तित्थयरं उक्क० द्विदि० कस्स ० १ पत्तसंजदस्स सागार जा० उक्क० संकिलि० संजमाभिमुहस्स चरिमे उकस्सए हिदिबंधे वट्टमाणयस्स । एवं संजमाणुवादेण संजद० - सामाइ ० -छेदो० । वरि पढमदंडओ मिच्छात्ताभिमुहस्स । परिहारस्स वि तं चैव । णवरि सव्वाओ पगदीओ उक्कस्स संकिलि० सामाइय-छेदोव ० अभिमुहस्स भारिणदव्वं । १००. मन:पर्ययज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? श्रन्यतर प्रमत्तसंयत जीव जो साकार जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है, उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर रहा है, असंयमके श्रभिमुख है और अन्तिम उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें अवस्थित है, वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यशःकीर्ति इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रमत्त संयत जीव जो स्वस्थानमें अवस्थित है, साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है, वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । १०१. देवायु, आहारक शरीर, आहारक श्राङ्गोपाङ्ग और तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो प्रमत्तसंयत जीव साकार जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है, असंयमके श्रभिमुख है और अन्तिम उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें अवस्थित है, वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । इसी प्रकार संयम मार्गणाके अनुवादसे संयत, सामायिक संयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेता है कि प्रथम दण्डककी कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी यह जीव मिथ्यात्वके अभिमुख होने पर होता है । परिहारविशुद्धिसंयत जीवों के भी इसी प्रकार कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि जो परिहारविशुद्धिसंयत जीव उत्कृष्ट संक्लेश परिगामवाला हो और सामायिक छेदोपस्थापना के श्रभिमुख हो, वह सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी होता है; ऐसा यहाँ कहना चाहिए। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy