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उक्कस्स-सामित्तपरूषणा
२७५ सुभग-जसगि० उक्क० हिदि० कस्स० ? अण्णद० चदुगदियस्स असंजदसम्मादि. सागार-जागार० तप्पाओग्गसंकिलि. सत्याणे वट्टमाणयस्स।
88. देवायु० आहार-आहार अंगो० तित्थयरं च ओघ । मणुसायु० उक्क० हिदि कस्स० ? अण्ण देवस्स वा णेरइयस्स वा ति भाणिदव्वं । मणुसगदिओरालिय०-ओरालिय अभो०-वजरिस-मणुसाणु० उक्क० हिदि० कस्स० ? अएणदर० देवस्स वा णेरइगस्स वा सागार-जा० उक्क०संकिलि० मिच्छताभिमुहस्स चरिमे उकस्सए हिदि० वट्टमाणयस्स । देवगदि०४ उक्क० हिदि० ६ स० ? अएण. असंजदसम्मादि० तिरिक्खस्स वा मणुसस्स वा सागार-जा० रक्क०संकिलि. मिच्छत्ताभिमुहस्स। गतिका असंयत सम्यग्दृष्टि जीव उक्त प्रकृतियोंके उकृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। सातावेद. नीय, हास्य, रति, स्थिर, सुभग और यश-कीर्तिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो चार गतिका असंयत सम्यग्दृष्टि है, साकार जागृत है, तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है और स्वस्थानमें अवस्थित है, वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है।
९९. देवायु, आहारक शरीर, अहारक आलोपान और तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी श्रोधके समान है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ?. अन्यतर देव और नारकी मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। ऐसा यहाँ कहना चाहिए । मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जो साकार जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है, मिथ्यात्वके अभिमुख है और अन्तिम उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें अवस्थित है, वह उक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । देवगति चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर असंयत सम्यग्दृष्टि, तिर्यश्च और मनुष्य जो साकार जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है और मिथ्यात्वके अभिमुख है, वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है।
विशेषार्थ-तीन अक्षानोंमें आहारकद्विक और तीर्थक्कर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता। इनके सिवा ११७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है, पर देवायुके सिवा इन सबका ओघ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यादृष्टिके ही होता है, इसलिए इनमें देवायुके सिवा शेष ११६ प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका खामी ओघके समान कहा है। देवायुका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें अधिकसे अधिक स्थितिबन्ध ३१ सागर होता है,सो भी वह किसी भी मिथ्याष्टिके नहीं होता; किन्तु परम विशुद्ध परिणामवाले द्रव्यलिङ्गी साधुके होता है, इसलिए देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके सम्बन्धमें इतनी विशेषताजाननीचाहिए। आभिनिबोधिक ज्ञान आदि तीन सम्यरझानोंमें आहारकद्विकको मिलाकर अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें बन्धको प्राप्त होनेवाली ७७ प्रकृतियोंके साथ कुल ७९ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। सो इनमेंसे आहारकद्विकके सिवा शेष सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका स्वामित्व अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें जानना चाहिए । मात्र आहारकद्विकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व प्रमादके सम्मुख हुए अप्रमत्त संयत जीवके उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों के होने पर होता है। शेष विशेषताका निर्देश मूलमें किया ही है।
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