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________________ २७४ महाबंधे टिदिबंधाहियारे ६६. अवगदवे० पंचणा०-चदुदंस०-सादावे-चदुसंज-जसगित्ति-उच्चागो०पंचंत० उक्क० हिदि० कस्स ? अएण. उवसमादो परिवदमाणस्स अणियट्टिबादरसांपराइयस्स से काले सवेदो होहिदि त्ति णदुंसगवेदाणुवहिस्स ।। ६७. कोधादिष्ट मूलोघं । मदि-सुद० मूलोघं । णवरि देवायु० उक्क० हिदि० कस्स० ? अएणद० मणुसस्स वा मणुसिणीए वा सागार-जा० तप्पाओग्गविसुद्धस्स । विभंगे मूलोघं । देवायु० मदिभंगो।। ८. आभि०-सुद०-अोधि० पंचणा-छदंस० असादा०-बारसक-पुरिसअरदि-सोग-भय-दुगुपंचिंदिय०-तेजा-का-समचदु०-वएण०४-अगुरु०४-पसत्थवि०तस०४-अथिर-असुभ-सुभग--सुस्सर-आदे०--अजस-णिमिण-उच्चागो०-पंचंतरा० उक्क० हिदि० कस्स० ? अएणद० चदुगदियस्स असंजदसम्मादिहिस्स सागार-जा० उक्क०संकिलि• मिच्छत्ताभिमुहस्स चरिमे वट्टमाणयस्स । सादावे०-हस्स-रदि-थिर विशेषार्थ- नपुंसक वेद तीन गतियों में होता है,मात्र देव नपुंसक नहीं होते। इसलिए यहाँ तीन गतियोंकी अपेक्षा नपुंसकवेदमें जहाँ जिन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव है,उसका निर्देश किया है । नपुंसकवेदमें भी १२० प्रकृतियोंका बन्ध होता है,यह स्पष्ट ही है। .९६, अपगतवेदमें पाँच शामावरण, चार दर्शनावरण, साता वेदनीय, चार संज्वलन, यश-कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर नपुंसक वेदसे उपशम श्रेणी पर चढ़कर गिरनेवाला अनिवृत्ति बादर साम्परायिक जीव जो तदनन्तर समयमें सवेदी होगा,वह अपगत वेदी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ-अपगतवेदमें उक्त २१ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। फिर भी वह नपुंसकवेदसे उपशम श्रेणीपर चढ़कर गिरनेवाले अनिवृत्ति जीवके सवेदी होनेके पूर्व समयमें होता है, क्योंकि नपुंसकवेदका उपशम सर्वप्रथम और उदय अन्य वेदोंकी अपेक्षा बाद में होता है, इसलिए इस वेदसे अवेदी हुए जीवके सवेदी होनेके एक समय पूर्व अन्य वेदोंसे अवेदी हुए जीवकी अपेक्षा सर्वोत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव है। ९७. क्रोधादि चार कषायवाले जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी ओघके समान है । मत्यशानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका भङ्ग मूलोघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला अन्यतर मनुष्य और मनुष्यिनी, मत्यज्ञानी और श्रुताशानी जीव देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। विभङ्गशानमें अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी मूलोधके समान है । देवायुका भक्त मत्यशानियोंके समान है। ९८. श्राभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतशानी और अवधिज्ञानी जीवों में पाँच शानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति,त्रसचतष्क, अस्थिर, प्रथम, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, अयश-कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला मिथ्यात्वके अभिमुख अन्तिम समयमें विद्यमान अन्यतर चार १. मूलप्रतौ कोडाकोडी मूलोघं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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