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________________ ३०२ महाबंधे टिदिबंधाहियारे जह० ट्ठिदि० कस्स० १ अएण० ईसाणंतदेवस्स मिच्छादि० तप्पाओग्गविसु । एवं चेव वेउव्वियमि० । वरि आयु० पत्थि । स्वामी कौन है ? अन्यतर ऐशान कल्प तकका देव जो मिथ्यादृष्टि है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगवाले जीवों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके आयुकर्मकी दो प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता। विशेषार्थ-काययोग और औदारिककाययोग एकेन्द्रियसे लेकर सयोगकेवली गुणस्थान तक होते हैं, इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व मलोधके समान बन जाता है। औदारिकमिश्रकाययोगके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि और सयोगकेवली ये चार गुणस्थान हैं । यहाँ सयोगकेवली गुणस्थानसे तो प्रयोजन ही नहीं। शेष तीन गुणस्थान तिर्यञ्च और मनुष्य दोनोंकी अपर्याप्त अवस्थामें होते हैं पर मनुष्य अपर्याप्तकोंकी अपेक्षा तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन सम्भव है, क्योंकि तिर्यञ्चोंमें एकेन्द्रियोंकी भी परिगणना होती है, इसलिए यहाँ औदारिकमिश्रकाययोगमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी सामान्य तिर्यञ्चोंके समान कहा है। मात्र एकेन्द्रियोंके देवगति-चतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता। तथा औदारिकमिश्रकाययोगमें इनका बन्ध अविरत सम्यग्दृष्टिके ही होता है इसलिए इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व अलगसे कहा है। औदारिकमिश्रकाययोगमें नरकायु, देवायु, नरकगति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आहारक शरीर और आहारक आङ्गोपाङ्गका बन्ध नहीं होता, इस लिए इनके स्वामित्वका यहाँ प्रश्न ही नहीं उठता। वैक्रियिक काययोग देव और नारकियोंके होता है, इसलिए इस बातको ध्यानमें रखकर इस योगमें बँधनेवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व यथायोग्य जान लेना चाहिए। समझनेकी बात इतनी है कि जिन प्रकृतियोंकी मिथ्यादृष्टि और सासदनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें बन्धव्युच्छित्ति होती है उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व मिथ्यादृष्टि वैक्रियिककाययोगी देव और नारकी को मूलमें कही गई विशेषताको ध्यान रखकर देना चाहिए और जिन प्रकृतियोंका आगे भी बन्ध होता है उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व अविरतसम्यग्दृष्टि वैक्रियिककाययोगी देव और नारकीको देना चाहिए । मात्र तिर्यञ्चगति द्विक, उद्योत और नीचगोत्रके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी सातवीं पृथिवीके सम्यक्त्वके सम्मुख हुए सर्वविशुद्ध नारकीको ही कहना चाहिए, क्योंकि सातवीं पृथिवीमें मिथ्यादृष्टि नारकीके मनुष्यगति द्विक और उच्चगोत्रका बन्ध नहीं होता, इसलिए उसके सम्यक्त्वके अभिमुख होनेपर भी उक्त चार प्रकृतियोंका बन्ध होता रहता है। अतएव सातवीं पृथिवीमें ही इनका जघन्य स्थितिबन्ध उपलब्ध होता है। इसी तरह वैक्रियिक काययोगमें तिर्यञ्चाय और मनुष्यायका उसके योग्य जघन्य स्थितिबन्ध मिथ्यात्वमें ही उपलब्ध होता है, क्योंकि इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके योग्य परिणाम मिथ्यादृष्टिके ही होते हैं। यही कारण है कि यहाँ वैक्रियिक काययोगमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व उक्त प्रकारसे कहा है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके स्वामित्वके प्रति वैक्रियिककाययोगसे अन्य कोई विशेषता नहीं है। मात्र वैधियिकमिश्रकाययोगमें सम्यक्त्वकी उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए जिन प्रकृतियोंके जधन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व वैक्रियिककाययोगमें सम्यक्त्वके अभिमुख हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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