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जहण्ण-सामित्तपरुवणा
३०१ १२७. वेउव्वियका० पंचणा०-छदसणा०-सादावे०-बारसक-परिस-हस्सरदि-भय-दुगु-मणुसग०-पंचिंदि०-तिरिणसरीर०-समचदु०-ओरालि०अंगो०-वज्जरिसभ०-वएण०४-मणुसाणु०-अगुरु०-पसत्थवि०-तस०४-थिरादिछ०-णिमि०-तित्थकरउच्चा०-पंचंत० जह• हिदि० कस्स० १ अएण. देवणेरइय० सम्मादि० सागारजा० सव्वविसुद्ध०। थीणगिद्धि३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४ जहरू हिदि० कस्स० ? अण्णद. देव.' णेरइ० मिच्छादि० सागार-जा० सम्मत्ताभिमुह । असादा-अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० जह० हिदि० कस्स ? अण्ण देव० णेरइय० सम्मादि० सागार-जा. तप्पाअोग्गविसु० । इत्थि०-णवुस-पंचसंठा०पंचसंघ०-अप्पसत्थ०-दृभग-दुस्सर-अणादे०-णीचा जह० हिदि० लस्स० १ अएण देव णेरइय० मिच्छादि० सागार-जा० तप्पाओग्गविसु । दोआयु० जह• हिदि० कस्स० ? अण्णद० देव० णेरइय० मिच्छादि तप्पाओग्गसंकिलि । तिरिक्खग०तिरिक्वाणु-उज्जो०-णीचा० जहरू हिदि० कस्स ? अएणद० सत्तमाए पुढवीए मिच्छादि. सागार-जा. सव्वविसु० सम्मत्ताभिमुह । एइंदि०-आदाव-थावर
१२७. वैक्रियिक काययोगी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिकतैजस-कार्मण तीन शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जो सम्यग्दृष्टि है, साकार जागृत है
और सर्वविशुद्ध है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी : अन्यतर देव और नारकी जो मिथ्यादृष्टि है. साकार जागृत है और सम्यक्त्वके अभिमख है वष्ठ उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। असातावेदनीय, अरति. शोक. अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जो सम्यग्दृष्टि है, साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध है और वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जो मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। दो आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जो मिथ्यादृष्टि है और तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट है वह उक्त दो आयु प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर सातवों पृथिवीका नारकी जो मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और सम्यक्त्वके अभिमुख है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। एकेन्द्रिय जाति, पातप और स्थावर प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका
१. मूलप्रतौ देवगदि गैरइय० इति पाउः । २. मलमतौ देषगवि णेरइय० इति पाठः ।
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