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________________ ३०० महाबंधे द्विदिवंधाहियारे अपुव्वकरणखवग० परिभवियणामाणं बंधचरिमे जह• हिदि० वट्ट । एइंदि०. आदाव-थावर जह• हिदि० कस्स• ? अण्ण-तिगदियस्स मिच्छादि सागार-जा. तप्पाओग्गविसुद्ध । वचिजोगी. असच्चमोस. तसपज्जत्तभंगो। १२६. कायजोगि-ओरालियकायजोगि० मूलोघं । ओरालियमि० देवगदि०४तित्यय० जह० हिदि० कस्स० १ अएण. असंज. सागार-जा. सव्वविमु०। सेसाओ जाओ अत्थि ताओ तिरिक्खोघं । तियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अपूर्वकरण क्षपक जो परमय सम्बन्धी नामकर्मकी प्रकृतियोंके बन्धके अन्त में जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित वह जल प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। एकेन्द्रिय, आतप और स्थावर प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तीन गतिका मिथ्यादृष्टि जीव जो साकारजागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। वचनयोगी और असत्यमृषावचनयोगी जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी प्रसपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ-यहाँ पाँच मनोयोग और पाँच वचनयोगमें कौन जीव किन प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है इसका विचार किया गया है। उसमें भी वचनयोग और असत्यमृषावचनयोग द्वीन्द्रियोंसे लेकर होता है इसलिए इनमें प्रसपर्याप्तकोंके समान सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व घटित हो जाता है, इसलिए उनका कथन प्रसपर्याप्तकोंके समान कहा है तथा शेषका स्वतन्त्र कथन किया है। यह तो स्पष्ट बात है कि पाँच मनोयोग और सत्य, असत्य और उमय वचनयोग एकेन्द्रियसे लेकर संशी पनन्द्रिय तक नहीं होते। केवल संक्षी पञ्चेन्द्रिय जीवोंके होते हैं, इसलिए इनमें एकेन्द्रियोंसे लेकर असंझी पञ्चेन्द्रिय तकके जीवोंके होनेवाला स्थितिबन्ध सम्भव नहीं है। अतः संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में कहाँ किन प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध सम्भव है इस दृष्टिसे इनमें सब प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धके स्वामित्वका विचार किया गया है। यहाँ साधारणतः पहले और दूसरेगुणस्थानमें जिन प्रकृतियोंकीबन्धव्युच्छित्ति होती है उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व अधिकारी भेदसे मिथ्यात्वगुणस्थानमें उपलब्ध होता है। इसी प्रकार आगे गुणस्थानों में जहाँ जिन प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति कही है उस गुणस्थानमें उन प्रकृतियोंके जघन्य स्थिति स्वामित्व उपलब्ध होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।मात्र चार आयकर्म सके अपवाद हैं। चारों आयुओका जघन्य स्थितिबन्ध अपने अपने जघन्य स्थितिबन्धके योग्य सामग्रीके मिलने पर मिथ्यात्व गुणस्थानमें मनुष्य और तिर्यञ्चोंके होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मिथ्यादृष्टि मनुष्य और तिर्यश्च कहा गया है । सब प्रकृतियों के अपन्य स्थितिबन्धकी योग्यताका निर्देश मूलमें किया ही है। १२६. काययोगी और औदारिक काययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समान है। औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें देवगतिचतुष्क और तीर्थकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टि जो साकार जागृत है और सर्वविशुद्ध है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। शेष जितनी प्रकृतियाँ हैं उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी सामान्य तिर्यके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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