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महाबंधे टिदिबंधाहियारे अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो। पज्जत्त-जोणिणीसु चउवीसं मुहुत्तं । अपज्जत्ते अंतो।
२०७. मणुस०३ सत्तएणं क. अोघं । श्रायु० उक्क० ओघं । अणु० णिरयभंगो। मणुसअपज्ज. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । णवरि अट्टएणं क. अणु. जह० एग०, उक्क० पलिदो० असंखे ।
२०८. देवा० णिरयभंगो । णवरि सव्वढे आयु० अणुक्क० जह० एग०, उक्क पलिदो० संखेज।
२०६. सव्वएइंदि०-बादरपुढवि०-अाउ-तेउ०-वाउ अपज्जत्ता तेसिं चेव सबसुहुम० सव्ववणप्फदि-णिगोद० बादरवण पत्तेय अपज्जत्त० सत्तएणं क उक्त अणु० णत्थि अंतरं । आयु० मूलोघं। सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-तस सव्वपंचिंदियतिरिक्खभंगो । बादरपुढवि०-ग्राउ-तेउ०पज्जत्ता० बादरवणप्फदि
उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तर अोधके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। पर्याप्त तिर्यञ्च और योगिनी तिर्यञ्चोंमें उत्कृष्ट अन्तर चौबीस मुहूर्त है । तथा अपर्याप्त तिर्यञ्चोंमें अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ-यहां पर्याप्त तिर्यश्च और योगिनी तिर्यञ्चोंमें चौबीस मुहूर्त आयुकर्मके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कहा है। तथा सामान्य और अपर्याप्त तिर्यञ्चोंमें यह अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। सो इस कथनका यह तात्पर्य प्रतीत होता है कि यदि इस बीच आयुकी उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्ध न हो तो जिसका जितना अन्तरकाल कहा है, उतने कालतक उस-उस मार्गणामें आयुकर्मका बन्ध करनेवाला एक भी जीव नहीं होता।
___ २०७. मनुष्य त्रिकमें सात कौका भङ्ग ओघके समान है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तर ओघके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि आठों कौकी अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
२०८. देवोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि सर्वर्थसिद्धिमें श्रायुकर्मकी अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धं करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके सख्यातवें भागप्रमाण है।
२०९. सब एकेन्द्रिय, बादरपृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादरअग्निकायिक अपर्याप्त, बादरवायुकायिक अपर्याप्त और उन्हींके सब सूक्ष्म, सब वनस्पति, सब निगोद, बादर वनस्पतिप्रत्येकशरीर अपर्याप्त जीवों में सात कौकी उत्कृष्ट
और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। आयुकर्मका भङ्ग मूलोधके समान है। सब विकलेन्द्रिय, सब पञ्चेन्द्रिय और सब सोंका भङ्ग सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। बादरपृथिवीकायिक पर्याप्त, बादरजलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक
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