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उकस्स-अन्तरपरूवणा कोधादि०४-मदि०-सुद०-असंज-अचक्खु-किएणणील.-काउ०-भवसि०-अब्भवसि०-मिच्छादि०-असएिण-आहाराणाहारग त्ति ।
०५. आदेसेण णेरइएसु सत्तएणं कम्माणं उक्क० अणु० हिदिवंधंतरं ओघो । आयु० उक. जह० एग०, उक्क० अंगुल० अंसखे० असं० ओसप्पि. उस्सप्पि० । अणु० जह० एग०, उक्क चव्वीसं मुहु० अडदालीसं मुहुर्त पक्खं मासं बे मासं चत्तारि मासं छम्मासं बारसमासं । । २०६. पंचिंदिय-तिरिक्ख. सत्तएणं क. ओघं । आयु० उक्क० ओघं ।
कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यशानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंझी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए।
विशेषार्थ-यहाँ नाना जीवोंकी अपेक्षा आठों कमौके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तर कालका निरूपण किया गया है। प्रोघसे सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अङ्गुलके असंख्यातवें भाग काल प्रमाण है । सो इसका यह अभिप्राय है कि यदि सात कमौंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध न हो, तो कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक सात कौमेंसे प्रत्येक कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव नहीं होता। परन्तु अनुकृष्ट स्थितिके बन्धके लिए यह बात नहीं है । उसका बन्ध करनेवाले सब या बहुत जीव सर्वदा पाये जाते हैं । यह ओघ प्ररूपणा अन्य जिन मार्गणाओं में सम्भव है, उनका निरूपण ओघके समान है; ऐसा कहकर यहाँ उनका नाम निर्देश किया है। मात्र इनमेंसे कितनी ही मार्गणात्रोंमें श्रोध उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है और कितनी ही मार्गणाओं में आदेश उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए ।
२०५. आदेशसे नारकियों में सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तर ओघके समान है। आयुकर्मको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है जो असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसपिणी कालके बराबर है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे चौबीस महर्त, अड़तालीस मुहूर्त, एक पक्ष, एक महीना', दो महीना, चार महीना, छह महीना और बारह महिना है।
विशेषार्थ-नरक सामान्य, और प्रथम पृथिवी आदि सात पृथिवियोंमें आयुकर्मके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल अलग-अलग है जो उक्त आठ स्थानों में उत्पत्तिके अन्तर कालके समान है। तात्पर्य यह है कि यदि कोई जीव मरकर नरकमें उत्पन्न हो,तो कमसे कम एक समय और अधिकसे अधिक बारह मुहूर्त तक नहीं उत्पन्न होता। इसके बाद कोई न कोई जीव किसी न किसी नरकमें अवश्य ही उत्पन्न होता है। इन
। इसी प्रकार प्रथमादि पृथिवियों में क्रमसे अड़तालीस मुहूर्त आदि काल प्रमाण उत्कृष्ट उत्पत्तिका अन्तर है। जो यह उत्पत्तिका अन्तर है, वही अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर है,यह उक्त कथमका तात्पर्य है। शेष कथन सुगम है।
२०६. पञ्चद्रिय तिर्यञ्च चतुष्को सात कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है। आयुकर्मकी
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