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________________ ११८ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे सत्तण्णं क० सुहुम० छण्णं क० जह० मूलोघं । अ० अ० भंगो । २०२. आभि० -सुद०- ओधि० सुक्क० सम्मा० खइगसम्मा०- - वेदगस ० सतगं क० मूलोघं । सुक्काए खइग० आयु० मणुसिभंगो । सेसाणं उक्कस्सभंगो । २०३. उवसमस० सत्तणं क० जह० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० जह० अंतो०, उक्क० पलिदो० असंखे० । सासण० सत्तरणं क० जह० ज० जह० एग०, उक्क० पलिदो असंखे० । आयु० गिरयमंगो । एवं कालं समत्तं । अंतर परूवणा २०४. अंतरं दुविधं – जहणणयं उक्कस्यं च । उक्कस्सए पगदं । दुविधो सो - श्रघेण आदेसेण य । तत्थ श्रघेण ग्रहणं क० उकस्स डिदिबंधंतरं जह० एग०, उक्क० अंगुलस्स असंखे असंखेज्जा सपिरिण- उस्सप्पिणी । अणु० णत्थि अंतरं । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं पुढवि० आउ० ते ० - वाउ० तेसिं चेव बादर ० बादर०वण० पत्तेय ० कायजोग-रालियका ० -ओरालियमि० कम्मइ० स० • जीवों में सात कर्मोंकी और सूक्ष्मसाम्परायिक जीवोंमें छह कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल मूलोघके समान है । अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल अनुत्कृष्टके समान है । २०२. श्रभिनिवोधिकशानी, श्रुतज्ञानी, श्रवधिज्ञानी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों में सात कर्मोंका भङ्ग मूलोघके समान है । शुक्ललेश्यावाले और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें श्रायुकर्मका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है तथा शेष मार्गणाओं में आयुकर्मका भङ्ग उत्कृष्टके समान है २०३. उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सात कर्मीको जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल श्रन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंमें सात कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । श्रयुकर्मका भङ्ग नारकियोंके समान है । इस प्रकार काल समाप्त हुआ । अन्तरप्ररूपणा २०४. अन्तर दो प्रकारका है— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— श्रोध और आदेश । उनमें से श्रधकी अपेक्षा श्राठों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है जो असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीकालके बराबर है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार श्रोघके समान सामान्य तिर्यञ्च पृथिवीकायिक, अलकायिक, अझिकायिक, वायुकायिक और इनके बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, काययोगी, श्रदारिककाययोगी, श्रदारिकमिश्रकाययोगी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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