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________________ २६२ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ७७. भवण-वाणवेत०-जोदिसि०-सोधम्मीसा० पंचणा०-णवदंसणा०-असादा-मिच्छत्त-सोलसक०-णवुस-अरदि-सोग--भय-दुगु-तिरिक्खगदि-एइंदि०ओरालि०-तेजा-क० हुडसं०-वएण०४-तिरिक्खाणु०-अगुरु०४-आदाउज्जो०-थावरबादर-पज्जत-पत्तेयसरीर-थिरादिपंच-णिमिण-णीचागो०-पंचंतरा० उक्क० हिदिवं० कस्स० ? अण्णद० मिच्छादिहि० सागार-जागार० उक्कस्ससंकिलिह. अथवा ईसिमझिमपरि० । सेसाणं तस्सेव सागार-जागार० तप्पाओग्गसंकिलि० उक्कस्सहिदि० वट्टमा० । दोआयु० सोधम्मे तित्थयरं च देवोघं । एवं सणक्कुमार याव सहस्सार त्ति विदियपुढविभंगो । ७८. अणादादि याव गवगेवजा त्ति पंचग्णा०-गवदंसणा०-असादावेमिच्छत्त-सोलसक--णवुस-अरदि-सोग-भय-दुगु-मणुसगदि-पंचिंदियजादि-अोरालिया-तेजा-क-हुडसं०-ओरालिय०अंगो०-असंपत्तसेव०-वएण०४-मणुसाणु०अगुरु०४-अप्पसत्थवि०-तस०४-अथिरादिछक्क-णिमिण-णीचागो०-पंचंतरा० उक्क० हिदि० कस्स० ? अण्णद० मिच्छादि उक्क संकिलि० । सेसाणं तस्स चेव सागारजागार० तप्पाअोग्गसंकिलि । मणुसायु० उक० हिदि० कस्स० ? अएण० मिच्छादिहिस्स सम्मादिहिस्स वा तप्पाओग्गविसुद्धस्स । ७७. भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी तथा सौधर्म और ऐशान कल्पके देवोंमें पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा; तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, पातप,उद्योत, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिरादिक पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अथवा अल्प मध्यम परिणामवाला, अन्यतर मिथ्यादृष्टि जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी साकार जागृत, तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला और उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला वही जीव है।वथादो आयुओंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी और सौधर्मकल्पयुगलमें तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी सामान्य देवोंके समान है। इसी प्रकार सानत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तक अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी दूसरी पृथिवीके समान है। __७८. आनत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिक शरीर प्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिरादिक छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायोंके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अन्यतर मिथ्यादृष्टि जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी साकार जागृत और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला वही जीव है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला, अन्यतर मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि उक्त देव मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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