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________________ उक्कस्स-सामित्तपरूवणा २६१ ७५. मणुस०३ आहार-अाहार०अंगो-तित्थयर०-आयु० चत्तारि श्रोधं । सेसाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो । मणुसअपज्जत्ता तिरिक्खअपजत्तभंगो।। ७६. देवगदीए पंचणा-णवदसणा०-असादा-मिच्छत्त-सोलसक०-णबुंस०-- अरदि-सोग-भय-दुगु-तिरिक्वगदि-एइंदि०-पंचिंदि-ओरालिय०-तेजा-क०-डंडसं०ओरालि०अंगो०-असंपत्तसेवट्टसंघ०-वएण०४-तिरिक्वाणुपु०-अगुरु०४-आदाउज्जो०अप्पसत्थविहा०-तस-थावर-बादर-पज्जत्त-पत्तेय०-अथिरादिलक्क-णीचागोद-पंचंतरा० उक्क -हिदि० कस्स० ? अण्णद० मिच्छादिहि० सागार-जागार० उक्कस्ससंकिलि० अथवा ईसिमज्झिमपरिणामस्स। दोआयु० तित्थयरं च णिरयभंगो। सेसाणं तप्पाओग्ग-संकिलि० मिच्छादिहि । प्रकृतियाँ ११७ हैं। इनमेंसे इसके १०७ प्रकृतियोंका श्रोधके समान उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है और शेष रही देवायु तिर्यंचगतिद्विक, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक द्विक, असंप्रातासृपाटिकासंहनन, आतप, उद्योत और साधारण इन १० प्रकृतियों का आदेश स्थितिबन्ध होता है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी जीवोंमें भी जान लेना चाहिये। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों में पूर्वोक्त ११७ प्रकृतियों से देवायु, नरकायु और वैक्रियिक छह इन ८ प्रकृतियोंके कम कर देने पर कुल बन्धको प्राप्त होनेवाली १०६ प्रकृतियाँ शेष रहती हैं । सो इसके इन सब प्रकृतियोंका आदेश उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि इन सब मार्गणाओं में किस अवस्थाके होने पर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है,इसका मूलमें निर्देश किया ही है। इसी प्रकार अन्य मार्गणाओंमें जहाँ जिस अवस्थामें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, उसका पृथक्-पृथक् निर्देश मूलमें किया है। ७५. मनुष्यत्रिकमें आहारकशरीर, आहारक आङ्गोपाङ्ग, तीर्थकर प्रकृति और चार आयुओंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी ओघके समान है। तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थिति बन्धका स्वामी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चके समान है। मनुष्य अपर्याप्तकों में अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ-मनुष्यत्रिकमें सब अर्थात् १२० प्रकृतियोंका बन्ध होता है । इनमेंसे १११ का ओघ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है और तिर्यञ्चगतिद्विक, एकेन्द्रिय जाति, औदारिकद्विक, असम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, आतप, उद्योत तथा स्थावर इन ९ प्रकृतियोंका आदेश उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । मनुष्य अपर्याप्तकोंका विचार पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है; यह स्पष्ट ही है। ७६. देवगतिमें पाँच झानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असंप्राप्तामृपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, वादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिरादिक छह नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकास्वामी कौन है ? साकार जागृत, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अथवा अल्प,मध्यम परिणामवाला अन्यतर मिथ्याष्टि देव उक्त प्रक तियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। दो आयु और तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी नारकियोंके समान है, तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला मिथ्यादृष्टि देव है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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