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________________ बंधे सामित्तं १८५ बंध कस होदि ? रणदरस्स उवसामणादो परिवदमाणस्स रिट्टि - बादरसांपराइगस्स पढमसमयदेवस्स वा । असंखेज्जगुणहाणिबंधो कस्स होदि ? अण्णदरस्स उवसामगस्स वा खवगस्स वा अणियट्टिवादरसांपराइगस्स । अत्तव्वबंध कस्स होदि ? अण्णदरस्स उवसामगस्स परिवदमाणस्स मणुसस्स वा मणुसि णीए वा पढमसमयदेवस्स वा । युगस्स अवत्तव्वबंधो कस्स होदि ? अणदरस्स पदमसमयत्र्त्रायुगबंधमाणस्स । तेण परं असंखेज्जभागहारिणबंधो । एवं कायजोगिअचक्खु ० - भवसि '० - आहारगति । · ३६३. श्रादेसेण रइएस सत्तरणं कम्माणं तिरिणवडि- हारिण-अवदिबंधो कस्स होदि ? दरस्स । आयु० दो विपदा ओघं । सव्वत्थ आयु० भंगो । एवं मदि० - सुद० - संज० - किरण ०-गील ०- काउ० - अब्भवसि ० - मिच्छादिट्ठि त्ति । सव्वपंचिंदियतिरिक्ख- मणुस्स पज्जत - सव्वदेव पंचिंदिय-तस अपज्जत्ता - वेडव्विय ०वेडव्वियमि० - आहार० - आहारमि० - विभंग ०- परिहार० - संजदासंजद ० - ते ० – पम्मले ०. वेदग०' - सासण० - सम्मामि० गिरयभंगो कादव्वो । एइंदिए सत्तणं क० एगवडदबंध कस्स होदि १ अणदरस्स । एवं पंचकायाणं । विगलिंदिra सत्तरणं क० दोरिएणवड्डि-हारिण-अवद्विदबंधो कस्स होदि ? अणदरस्स । एवं होता है ? अन्यतर जो उपशम श्रेणिसे गिरकर अनिवृत्तिबादरसाम्पराय हुआ है अथवा प्रथम समयवर्ती देव हुआ है, उसके होता है । असंख्यात गुणहानिबन्ध किसके होता है ? अन्यतर उपशामक अनिवृत्तिबादर साम्परायिक जीवके अथवा क्षपक अनिवृत्तिबादर साम्परायिक जीवके होता है । अवक्लव्यबन्ध किसके होता है ? उपशमश्रेणिसे गिरनेवाले श्रन्यतर मनुष्य, मनुष्यनी और प्रथम समयवर्ती देवके होता है। आयुकर्मका प्रवक्तव्यबन्ध किसके होता है ? अन्यतर प्रथम समयवर्ती श्रायुकर्मका बन्ध करनेवाले जीवके होता है । इससे आगे आयुकर्मका असंख्यात भागहानिबन्ध होता है । इसी प्रकार काययोगी, श्रचक्षुदर्शनी, भव्य और श्राहारक जीवोंके जानना चाहिए । ३६३. प्रदेशसे नारकियोंमें सात कमका तीन वृद्धिबन्ध, तीन हानिबन्ध और श्रवस्थितबन्ध किसके होता है ? अन्यतरके होता है । आयुकर्मके दोनों ही पदका स्वामित्व धके समान है। इसी प्रकार सर्वत्र आयुकर्मके दोनों पदोंका स्वामित्व के समान जानना चाहिए । इसी प्रकार मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त सब देव, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त, वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिक मिश्रकाययोगी, श्राहारककाययोगी, श्राहारकमिश्रकाययोगी, विभंगशानी, परिहारिविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके नारकियोंके समान भङ्ग करना चाहिए। एकेन्द्रियों में सात कर्मोंका एक वृद्धिबन्ध, एक हानिबन्ध और अवस्थितबन्ध किसके होता है ? अन्यतरके होता है । विकलेन्द्रियोंमें सात कर्मोंके दो वृद्धियोंका बन्ध, दो हानियोंका बन्ध और १. मूलप्रतौ भवसि० अणाहारग इति पाठः । २. मूलप्रतौ सव्वा श्रायुश्रोध - इति पाठः । १. मूलप्रतौ वेद्ग० सम्मादि० सासण० सम्मादि० णिरय - इति पाठः २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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