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________________ महाबंधे टिदिबंधाहियारे असएिण। णवरि संखेज्जगुणवडिबंधो कस्स होदि ? अएणदरस्स एइंदिया विगलिंदियस्स वा विगलिंदिएमु असगिणपंचिंदिएसु उववज्जमाणस्स । संखेज्जगुणहाणि तबिवरीदं णेदव्वं । __ ३६४. मणुस०३ सत्तएणं क. अोघं । णवरि अवत्तव्यबंधो देवो त्तिण भाणिदव्यं । एवं ओरालियका-मणपज संजद० । ओरालियमि० तिरिक्खोघं कादव्वं । ३६५. पंचिंदिय-तस० तेसिं पज्जत्त० सत्तएणं क. तिएिणवडि-हाणि-अवहिदबंधो कस्स होदि ? अएणदरस्स । असंखेजगुणवड्डि-हाणि-अवत्तव्वं प्रोघं । एवं आभि०-सुद-प्रोधि०-चक्खुदं०-प्रोधिदं०-मुक्कले०-सम्मादिहि-खइग०-सणिण त्ति । पंचमण-पंचवचि० मणुसभंगो। ३६६. कम्मइ० सत्तएणं क. तिएिणवडि-हाणि-अवहिद० कस्स ? अण्णदरस्स । एवं अणाहार० । तिगिणवेद०--चत्तारिकसाय०-सामाइ०-छेदो. पंचिंदयभंगो । णवरि अवत्तव्वगंणत्थि । लोभे मोहणी अवत्तवं अत्थि । अवगद. पाणावर०-दसणावर०-अंतराइ० संखेजभागवडि-संखेजगुणवडि-अवत्तव्यबंधो अवस्थित बन्ध किसके होता है ? अन्यतरके होता है। इसी प्रकार असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें संख्यात गुणवृद्धिबन्ध किसके होता है ? जो कोई एक एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रिय जीव मरकर विकलेन्द्रियोंमें और असंही पञ्चेन्द्रियों में उत्पन्न होता है, उसके होता है। इनके संख्यातगुणहानिबन्धका कथन इससे विपरीत क्रमसे जानना चाहिए। ३६४. मनुष्य त्रिकमें सात कौके सब पदोंका स्वामित्व ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य बन्धका स्वामी देव होता है, यह नहीं कहना चाहिए। इसी प्रकार औदारिक काययोगी, मनःपर्ययज्ञानी और संयत जीवोंके जानना चाहिए । औदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें सम्भव सब पदोंका स्वामित्व सामान्य तिर्यञ्चोंके समान कहना चाहिए। ३६५. पञ्चन्द्रिय, त्रस और इनके पर्याप्त जीवों में सात कर्मोंकी तीन बृद्धियोंका बन्ध, तीन हानियोंका बन्ध और अवस्थितबन्ध किसके होता है ? अन्यतरके होता है। असंख्यात गुणवृद्धिबन्ध, असंख्यातगुणहानिबन्ध और अवक्त उन्धका स्वामित्व श्रोधके समान जानना चाहिए । इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ल लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि और संशी जीवोंके जानना चाहिए । पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी जीवोंके सब पदोंका स्वामित्व मनुष्योंके समान है। ३६६. कार्मणकाययोगी जीवों में सात कर्मोकी तीन वृद्धियोंका बन्ध, तीन हानियोंका बन्ध और अवस्थितवन्ध किसके होता है ? अन्यतरके होता है । इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । तीन वेदवाले, चार कषायवाले, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके सब पदोंका स्वामित्व पञ्चेन्द्रियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके प्रवक्तव्यपद नहीं है। किन्तु लोभकषायमें मोहनीय कर्मका प्रवक्तव्य पद है। अयगतवेदी जीवों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मकी संख्यातभाग वृद्धिका बन्ध, १. मूलप्रतौ अवत्तव्वं णत्थि इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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