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________________ છૂટ महाधे हिदिबंधाहियारे विसेसो | देवरइगाणं युगस उक्कस्सो द्विदिबंधो पुव्वकोडी । छम्मासं श्रावाधा। कम्म्मणिसेगो । एवं वेडव्वियका० । चदुरणं लेस्सारणं युगस्स उक्क० द्विदिबंधो सत्तारस सागरोवमं सत्त सागरोवमं बे-अद्वारस सागरोवमं सादि० । पुव्वकोडितिभागं आबाधा । कम्मदी कम्मणि । २५. पंचिंदिय-तिरिक्ख - अपज्जत्ताणं सत्तणं कम्माणं उक्क हिदिबं० अंतोhisthira | तोमुहु० आबाधा । आबाधूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो । आयुगस्स उक्क० द्विदिबं० पुव्वकोडी । अतोमुहुत्तं च बाधा । कम्महिदी कम्मणिसेगो । एवं मणुस पज्जत - पंचिंदिय-तसपज्जत-ओरालियमिस्सा ति । एवं चेव आद या सव्वात्ति वेडव्वियमिस्स० - आहार० - आहारमि'० कम्मइग ० - आभिणि-सुद०ओधि ० मरणवज्ज० - संजद सामाइ ० - छेदो ० - परिहार ० - संजदासंजद - ओधिदं ० - सुक्कले ० 0 कुछ विशेषता है । यथा - देव और नारकियोंके श्रायुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूर्वकोटिप्रमाण होता है, छह महीना की बाधा होती है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होते हैं। इसी प्रकार वैक्रियिककाययोगवालोंके जानना चाहिये । नील आदि चार लेश्यावालोंके कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध क्रमसे सत्रह सागरप्रमाण, सात सागरप्रमाण, साधिक दो सागरप्रमाण और साधिक अठारह सागरप्रमाण है, पूर्वकोटिका तीसरा भागप्रमाण बाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक हैं । विशेषार्थ - यहाँ सर्वप्रथम घसे आठ कर्मोंका उत्कृष्टस्थितिबन्ध, उत्कृष्ट आबाधा और उत्कृष्ट निषेकरचनाका निर्देश करके यह श्रवप्ररूपणा जिन-जिन मार्गणाओं में सम्भव है उसका विचार किया गया है। आयुकर्मके सिवा सात कर्मोंकी बाधा स्थितिबन्धमें गर्भित रहती है, इसलिये इन कर्मोकी निषेकरचना आबाधाको न्यून कर शेष स्थितिप्रमाण कही गई है । पर श्रायुकर्ममें इस प्रकार स्थितिबन्धके अनुसार प्रतिभाग से आबाधा नहीं प्राप्त होती है, किन्तु जिस पर्याय में विवक्षित आयुका बन्ध होता है उस पर्यायकी शेष रही आयु ही बध्यमान आयुकर्मकी बाधा होती है, इसलिये आयुकर्मके स्थितिबन्धमें यह बाधा गर्भित न रहनेसे आयुकर्मकी उसका जितना स्थितिबन्ध होता है, तत्प्रमाण निषेकरचना होती है । यहाँ जिन मार्गणाओं का निर्देश किया है, उनमें से जिन मार्गणाओं में प्रयुकर्म के बन्धके सम्बन्धमें अपवाद है, उसका पृथक्से निर्देश किया ही है । कारण स्पष्ट है । २५. पंचेन्द्रिय तिर्थच अपर्याप्त कोंके सात कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ा-कोड़ी है, अन्तर्मुहूर्त बाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक हैं । श्रायुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूर्वकोटि है, अन्तर्मुहूर्त आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक हैं । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त और श्रदारिकमिश्रकाययोगी जीवके जानना चाहिये । तथा इसी प्रकार आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देव, वैक्रियिक मिश्र काययोगी आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, श्रवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ल लेश्यावाले, १. 'छठगुणं वाहारे तम्मिस्से रात्थि देवाऊ ||' गो० क०, गा० ११८ | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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