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________________ अद्धाच्छेदपवणा सम्मादिट्टि-खइगस-वेदग०-उवसमस-सासण-सम्मामि०-अणाहारग त्ति । वरि आयुविसेसो। आणद याव सव्वट्ट ति देवोघं । वेउब्बियमि०-कम्मइग-उवसमसम्मामि०-अणाहार० आयुगं पत्थि । संजदासंजद. आयुग उक्क. हिदि. बावीसं सागरोवमं । पुव्वकोडितिभागं आबाधा। कम्महिदी कम्मणिसेगो। सासणे आयुग• उक्क० एक्कत्तीसं सागरोवमं । पुन्चकोडितिभागं आबाधा । कम्मट्ठिदी' कम्मणिसेगो । आहारकायजोगी आदि कादूण आयु० ओघं । सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यक् मिथ्यादृष्टि और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु आयुकर्मके विषय में कुछ विशेषता है। यथा-आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक देवोंके आयुकर्मका कथन सामान्य देवोंके समान है । तथा वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, उपशमसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अनाहारक जीवोंके आयुकर्मका बन्ध नहीं होता। संयतासंयतोंके आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बाईस सागर होता है। पूर्वकोटिका तीसरा भाग प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक हैं। सासादनमें आयकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध इकतीस सागर होता है, पूर्वकोटिका तीसरा भागप्रमाण आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक हैं। आहारककाययोगीसे लेकर शेषके आयुकर्मका विचार ओघके समान है। विशेषार्थ-यहाँ पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त पदसे संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त जीव लिये गये हैं। अन्तःकोटाकोटी सागरसे आगेका स्थितिबन्ध संशी पर्याप्त मिथ्यादृष्टिके ही होता है। किन्तु यहाँ जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं, उनमें जो पर्याप्त अवस्थासे सम्बन्ध रखनेवाली मार्गणाएँ हैं,वे मिथ्यादृष्टि नहीं है और जो मिथ्यात्व अवस्थासे सम्बन्ध रखनेवाली मार्गणाएँ हैं वे पर्याप्त नहीं, अतः इन सब मार्गणाओंमें आयुके सिवा शेष सात कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोटाकोटी सागरप्रमाण बन जाता है। आयुकर्मके स्थितिवन्धके सम्बन्धमें जो विशेषता है,वह अलगसे कही है । आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूर्वकोटिप्रमाण ही होता है; परन्तु उत्कृष्ट आबाधा अन्तर्मुहूर्तप्रमाण न होकर छह महीनाकी होती है, इसलिये इनके आयुकर्म के स्थितिबन्धका कथन पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकोंके समान न कह कर सामान्य देवोंके समान कहा है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, उपशमसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अनाहारक जीवोंके आयुकर्मका बन्ध नहीं होता,यह स्पष्ट ही है। यहाँ जिस प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें आयुबन्धका निषेध किया है,उस प्रकार आहारकमिश्रकाययोगमें श्रायुबन्धका निषेध नहीं किया। इतना ही नहीं,किन्तु इस व आगेके प्रकरणोंको देखनेसे विदित होता है कि 'महाबन्धके अनुसार आहारककाययोगके समान आहारकमिश्रकाययोगमें भी श्रायुबन्ध होता है। किन्तु गोम्मटसार'कर्मकाण्डमें आहारकमिश्रकाययोगमें आयुबन्धका निषेध किया है। संयतासंयत जीवोंका गमन सोलचे कल्पतक और सासादनसम्यदृष्टियोंका गमन अन्तिम ग्रेवेयकतक होता है। इससे इनके आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध क्रमसे बाईस और इकतीस सागर प्रमाण बतलाया है। शेष कथन सुगम है। 1. मूलप्रती-हिदी कम्माणं सेसाणं । श्राहार-इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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