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________________ ३५२ महाबंघे ट्ठिदिबंधाहियारे पुरिस० - देवर्गादि४- उच्चा० जह० हिदि० जह० उक्क० अंतो० । अज० जह० एग०, उक्क तिरिण पलिदो ० सादि० । मणुसिणीसु देसू० । णिरयगदि-रियाणुपु० जह० अ० उक्कस्सभंगो । पंचिंदि० पर ० उस्सा० -तस०४ जह० डिदि० जह० एग०, उक्क० बेसम० । अज० जह० एग०, उक्क० तिरिए पलिदो० सादि० । तित्थय० जह० हिदि० ओघं । मणुसिणीसु तित्थय० जह० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० हिदि० जह० एग०, उक्क ० पुव्वकोडी सू० । १८६. मणुस पज्ज० धुविगाणं जह० द्विदि० जह० एग०, उक्क० बे सम० । अज० जह० खुद्धाभव० बिसमयूर्ण, उक्क० अंतो० । सेसा जह० एग०, उक्क० बे समयं । अज० जह० एग, उक्क० तो ० । गोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है, पर मनुष्यिनियोंमें कुछ कम तीन पल्य है । नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीके जघन्य और अजधन्य स्थितिबन्धका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । पञ्चेन्द्रिय जाति, परघात, उच्लास और त्रस चतुष्क प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है | तीर्थङ्कर प्रकृति के जघन्य स्थितिबन्धका काल श्रोघके समान है । पर मनुष्यिनियोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है | अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है । १८६. मनुष्य पर्यातकों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल दो समय कम क्षुल्लकभव ग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - यहाँ क्षपक प्रकृतियोंसे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन, और पाँच अन्तराय इन १८ प्रकृतियोंका ग्रहण किया है। मनुष्य त्रिकके उनकी उत्कृष्ट कायस्थिति प्रमाण काल तक इनका निरन्तरबन्ध होता रहता है, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य कहा है । समचतुरस्रसंस्थान आदि पाँच और पुरुषवेद आदि छह प्रकृतियोंका सम्यग्दृष्टि मनुष्यके निरन्तर बन्ध होता रहता है । इसीसे यहां मनुष्य सामान्य और पर्याप्त मनुष्यके इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य और मनुष्यिनीके कुछ कम तीन पल्य कहा है। पञ्चे न्द्रिय जाति श्रादि सात प्रकृतियोंका सम्यग्दृष्टि मनुष्यके तो निरन्तर बन्ध होता ही है पर जो मनुष्य भोगभूमिमें उत्पन्न होते हैं उनके अन्तर्मुहूर्त काल पूर्व से भी इनका बन्ध होने में कोई बाधा नहीं आती । इसीसे इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य कहा है । यह काल सामान्य मनुष्य और पर्याप्त मनुष्यों में कुछ कम एक पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य प्रमाण जानना चाहिए और मनुष्यिनियोंमें अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य जानना चाहिए । तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाला मनुष्य मर कर मनुष्यों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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