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________________ जहरणटिदिबंधकालपरूवणा ३५३ १६०. देवेसु पंचणा-छदंसणा०-बारसक०-भय-दुगु ०-ओरालि०-तेजा०-क०वएण०४-अगुरु०४-बादर-पज्जत्त-पत्ते०-णिमि०-पंचंत० जह० जह० एग०, उक्क० बे सम० । अज० हिदि० जह० दस वस्ससहस्साणि बिसमयूणाणि, उक्क० तेत्तीसं सा० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४ जह० हिदि० जह० एग०, उक्क० बे सम०, अज० जह० एग०, मिच्छ० अंतो०, उक्क० एक्कत्तीसं सा० । पुरिस०-मणुसग०-पंचिंदि०-समचदु०--ओरालि०अंगो०-वजरिसभ०-मणु साणु०पसत्थवि०-तस-सुभग-सुस्सर-आदे०-उच्चा० जह० जह० एग०, उक्क० बेसम० । अज० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० । तित्थय. जह० अज० हिदि० उक्कस्सभंगो । सेसाणं जह० हिदि० जह० एग०, उक्क० बेसम । अज० उक्कस्सभंगो । १६१. एवं भवण-वाणवें० । गवरि सगहिदी भाणिदव्वा । जोदिसि याव गवगेवज्जा त्ति जह० अज० हिदि० उक्करसभंगो। णवरि थीण गिद्धि०३-मिच्छ०अणंताणुबंधि०४ जह० जह० उक्क० अंतो० । अज० जह० एग०, मिच्छ० अंतो०, उक्क० अप्पप्पणो हिदि त्ति । एवं णेदव्वं सव्वह त्ति । नहीं उत्पन्न होता । इसीसे यहां तीर्थङ्कर प्रकृतिके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण कहा है। शेष काल विचार कर जान लेना चाहिए । १९०. देवोंमें पाँच शान वरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय,भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त,प्रत्येक, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य स्थतिबन्धका जघन्य काल दो समय कम दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धी चारके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य बकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है ,मिथ्यात्वका अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल सबका इकतीस सागर है। पुरुषवेद, अनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रषभनाराच संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, सुभग, सुस्वर, श्रादेय और उच्चगोत्र प्रकृयोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। तीर्थकर प्रकृतिके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। तथा अजघन्य स्थितिबन्धका भङ्ग उल्का समान है। १९१. इसी प्रकार भवनवासी और व्यन्तर देवोंके जानना चाहिए । इतः विशेषता है कि इनमें अपनी स्थिति कहनी चाहिए। ज्योतिषियोंसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवों में जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । इतनी विशेषता है कि स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चार प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है, मिथ्यात्वका अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि तक जानना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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