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________________ ४२८ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे दुस्सर - अरणादे० ज० ओघं । अज० सगभंगो । चदुत्रायु० - वेडव्वियछ० - मणुसग०मसाणु ० - उच्चा० मदि० भंगो। तिरिक्खगदि ० ४ ज० जह० श्रधं । अज० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं० देसू० । चदुजा प्रदान - थावरादि०४ 'सगभंगो । ओरालि०-ओरालि० अंगो० वज्जरि० श्रोधं । तित्थय० ज० णत्थि अंतरं । अज० जह० उक्क० अंतो० । २८८. चक्खु० तसपज्जत्तभंगो | अचक्खु ० मूलोघं । श्रधिदं० श्रधिपाणिभंगो । 0 २८६. तिरिपलेस्साणं पंचरणा० दंसणा ० - सादासा० - बारसक००-सत्तणोक गिरयगदि - देवदि-पंचजादि-ओरालि० -तेजा ० क० - समचदु० ओरालि० अंगो० - वज्जरिसभ० - ० - चरण०४- दोत्राणु० गु००४ - [आदाव- ]पसत्थ० -तस०४ - [ थावर०४] थिराथिर-सुभासुभ-सुभग- सुस्सर - आदे० - जस० - अजस० - णिमि० - तित्थय ० - पंचंत० ज० द्वि० एत्थि अंतरं । अ० ज० एग०, उक्क० अंतो० । श्रीगिद्धि ० ३ - मिच्छ० - प्रांताणु०४ - इथि ० - ० - तिरिक्ख मणुसग० - पंचसंठा० - पंचसंघ० - दोश्राणुपु० - उज्जो०का अन्तरकाल श्रधके समान है । तथा श्रजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर नपुंसक वेदके समान है। चार श्रायु, वैक्रियिक छह, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग मत्यशानियोंके समान है । तिर्यञ्चगति चतुष्कके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर श्रधके समान है । जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। चार जाति, आतप और स्थावर आदि चारका भङ्ग नपुंसक वेदी जीवोंके समान है। श्रदारिक शरीर, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराच संहनन का भङ्ग श्रधके समान है । तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - सातवें नरकमें सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर होनेसे यहाँ अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम तेत्तीस सागर कहा है । यहाँ तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध संयमके श्रभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए इसके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। शेष कथन सुगम है । २८८. चतुदर्शनवाले जीवोंमें सपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है । श्रचक्षुदर्शनवाले जीवों में मूलोघके समान भङ्ग है । अवधिदर्शनवाले जीवोंमें अवधिज्ञानियोंके समान भङ्ग है । २८९. तीन लेश्याओं में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, असाता वेदनीय, बारह कषाय, सात नोकषाय, नरकगति, देवगति, पाँच जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, श्रातप, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थावर चतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रदेय, यशः कीर्ति, अयशःकीर्ति, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, १. मूलप्रतौ गु०४ श्रपसत्थ तस ४ इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International - www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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