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________________ ४२७ जहएणट्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा २८६. सामाइ०-छेदो० धुविगाणं ज० अज हि० णत्थि अंतरं। तित्थयरं धुविगाणं भंगो। सेसाणं मणपज्जवभंगो। परिहार० सव्वपगदीणं जह० ज० अंतो०, उक्क० पुन्वकोडी देमू० । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । मुहुमसांपराइ० सव्वपगदीणं जह० अज० पत्थि अंतरं । संजदासंजदा० धुविगाणं ज. अज० एत्थि अंतरं । परियत्तमाणियाणं संजदभंगो । आयु० परिहारभंगो।। २८७. असंज० पंचणा-छदंसणा-सादासा०-बारसक०-[सत्तणोक०-]पंचिंदि०तेजा०-क०-समचदु०-वएण०४-अगुरु०४-पसत्थ-तस०४-थिराथिर-सुभासुभ-सुभगसुस्सर-आदे०-जस०-अजस०-णिमि-पंचंत० ज० अज० मदि भंगो। थीणगिद्धि०३मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४-इत्थि०-णस-पंचसंठा-पंचसंघ-अप्पसत्थ-दूभग और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । यहाँ सातावेदनीय आदिका भी जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक श्रेणिमें होता है, इसलिए इनके भी जघन्य स्थितिबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है। इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त स्पष्ट ही है। असाता वेदनीय आदिका जधन्य स्थितिबन्ध प्रमत्तसंयतके होता है। जो मनःपर्ययज्ञानके प्राप्त होनेके प्रारम्भमें और अन्तमें इनका जघन्य स्थितिबन्ध करता है, उसके इनके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्व कोटि प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है । संयम मार्गणाके कथनमें मनःपर्ययज्ञानके कथनसे कोई अन्तर नहीं है.इसलिए इसमें सब प्रकृतियोंके अघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल मन:पर्ययज्ञानके समान कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ___२८६. सामायिक संयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ध्रुवबन्ध प्रकृतियोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भंग मनःपर्ययज्ञानके समान है । परिहारविशुद्धि संयत जीवों में सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटि है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवों में सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । संयतासंयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । परावर्तमान प्रकृतियोंका भङ्ग संयतोंके समान है और दोनों श्रायुओंका भङ्ग परिहारविशुद्धि संयत जीवोंके समान है। विशेषार्थ-इन सब संयमों में सब प्रकृतियोंका जो अन्तरकाल कहा है, उसे स्वामीका विचार कर ले आना चाहिये। विशेष बात न होनेसे यहाँ हमने अलग-अलग स्पष्टीकरण नहीं किया है। २८७. असंयत जीवों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, असाता वेदनीय, बारह कषाय, सात नोकषाय, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, प्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, यश-कीर्ति, अयश-कीर्ति, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल मत्यज्ञानियोंके समान है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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