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________________ ४२६ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे __२८५. मणपज्ज. पंचणा-छदंसणा-चदुसंज०-पुरिस०-भय-दुगु-देवगदिपंचिंदि०-तिरिणसरीर-समदु०-वेउव्वि०अंगो०-वएण०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थ०तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे-णिमि-तित्थय०-उच्चा०-पंचंत. ज. पत्थि अंतरं । अज० ज० उक्क० अंतो० । सादा०-हस्स-रदि-थिर-सुभ-जस० ज० णत्थि अंतरं । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । असादा-अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० ज० ज० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडी देसू० । अज० ज० एग०, उक्क. अंतो। देवायु० उक्कस्सभंगो । आहार०२ ज. हि० णत्थि अंतरं । अज० ज० उक्क० अंतो० । एवं संजदाणं ।। उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागर उपलब्ध होनेके कारण वह उक्त प्रमाण कहा है। इसी प्रकार आठ कषायोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल साधिक छयासठ सागर ले आना चाहिए । मात्र इनका जघन्य स्थितिबन्ध अविरत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीवके करा कर यह अन्तरकाल लाना चाहिए । यहाँ इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है । सो यह अन्तर इतने कालतक संयतासंयत और संयत रख कर लाना चाहिए । मनुष्यगतिपञ्चकके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर भी साधिक छयासठ सागर तक सम्यग्दृष्टि रखकर प्राप्त करना चाहिए । मात्र इस कालके प्रारम्भमें और अन्तमें देव और नारकोके जघन्य स्थितिबन्ध कराकर इसे लाना चाहिए । आहारकद्विकका जघन्य स्थितिबन्ध तपकश्रेणिमें प्राप्त होता है। इसलिए यहाँ इनके अन्तरकालका नि किया है । जो संयत जीव इनका अजघन्य स्थितिबन्ध करके और मर कर तेतीस सागरकी आयुके साथ देव होता है और वहाँसे आकर अप्रमत्त संयत होकर पुनः आहारकद्विकका बन्ध करता है उसके इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर प्राप्त होनेके कारण वह उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। २८५. मनःपर्ययज्ञानमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, तीन शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वणेचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति. प्रसचतष्क. सभग. सुस्वर, श्रादेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है । सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यश-कीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश:कीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । देवायुका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। आहारकद्विकके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार संयत जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-मनःपर्ययज्ञान में प्रथम दण्डकमें कही गई पाँच ज्ञानावरण आदि प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक श्रेणिमें होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है। मनःपर्ययज्ञानमें इन प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जानेपर पुनः अन्तर्मुहूर्त के बाद इनका बन्ध होता है. इसलिए यहाँ इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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