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________________ जहणट्ठदिबंध अंतर कालपरूवणा ४२५ २८४. भि० - सुद०-अधि० पंचरणा० - इदंसणा ० - सादा० चदुसंज० - पुरिस०हस्स-रदि-भय-दुगु० -पंचिंदि० - तेजा ० - ० - समचदु० - वरण ०४ - अगुरु ०४ - पसत्थ ०तस ०४ - थिरादिछक्क - णिमि० - तित्थय० उच्चा० - पंचंत० ज० हिदि० णत्थि अंतरं । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । वरि शिक्षा - पचला अज० ज० उक्क० अंतो० । असादा०अरदि-सोग- अथिर-असुभ अजस० जह० [ जह०] अंतो०, उक० छावट्टिसाग० सादि० । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० ! अक० ज० हि० ज० अंतो०, उक्क छावहिसाग० सादि० । अज० ज० अंतो०, उक्क० पुव्वको सू० । दो आयु० उकस्सभंगो | मणुसगदिपंचगस्स ज० डि० ज० अंतो०, उक्क० छावहिसाग ० सादि० । अ० ज० एग०, उक्क० पुव्वकोडी ० सादि० | देवगदि० ४ - आहार ०२ ज० द्वि० णत्थि अंतरं । अ० ज० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । I e २८४. श्रभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु४, प्रशस्तविहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि निद्रा और प्रचलाके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छ्यासठ सागर है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। आठ कषायोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छ्यासठ सागर है । श्रजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । दो श्रायुओं का भङ्ग उत्कृष्टके समान है । मनुष्यगति पञ्चकके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छ्यासठ सागर है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि है । देवगति चतुष्क और श्राहारकद्विकके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । विशेषार्थ- -इन तीन ज्ञानोंमें प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है । तथा इनमें से कुछ तो सान्तर प्रकृतियाँ है, सब नहीं हैं, फिर भी उपशम श्रेणिमें मरणकी अपेक्षा इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त उपलब्ध होने से वह उक्त प्रमाण कहा है। इतनी विशेषता है कि आठवें गुणस्थानके जिस भाग में निद्रा और प्रचलाकी व्युच्छित्ति होती है, वह मरणसे रहित है, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर भी अन्तर्मुहूर्तं कहा है । जिस जीवने सम्यक्त्वको प्राप्त कर प्रमत्तसंयत गुणस्थान में असाता आदिका जघन्य स्थितिबन्धं किया, पुनः वह साधिक छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ रहा और अन्तमें पुनः प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें जघन्य स्थितिबन्ध किया, उसके असाता आदि प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका ५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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