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________________ उक्कस्सट्ठिदिबंध अंतर कालपरूवणा ३९९ थिर-असुभ सुभग-सुस्सर - आदेय - अजस० - णिमिण - उच्चा० - पंचंत० ] श्रधिभंगो । सादा०-हस्स-रदि-थिर-सुभ-जस० तित्थय० उक्क० जह० उक्क० अंतो० । अणु० घं । अक० - देवर्गादि०४ उक्क० द्विदि० णत्थि अंतर ं । अणु० जहण्णु० अंतो० । मणुसगदिपंचग० उक्क० अणु० एत्थि अंतरं । आहार०२ उक्क० अ० जह० उक्क० तो ० । उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर अवधिज्ञानके समान है । साता वेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ, यशः कीर्ति और तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर श्रोघके समान है। आठ कषाय और देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्यगतिपञ्चकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर है। विशेषार्थ - यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई ज्ञानावरण पाँच आदि प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्वके भिमुख हुए जीवके होता है। तथा इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहनेका कारण यह है कि जो जीव इनका कमसे कम एक समयके लिए और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त के लिए अबन्धक होकर पुनः इनका बन्ध करता है, उसके जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है । अवधिज्ञानमें इन प्रकृतियोंका यह अन्तरकाल इसी प्रकार उपलब्ध होता है, इसलिए यहाँ यह अन्तरकाल अवधिज्ञानके समान कहा है । साता वेदनीय आदि प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध स्वस्थानमें होता है, इसलिए यहाँ इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर श्रोघके समान कहा है। आठ कषाय और देवगतिचतुष्कका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्वके अभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल उपलब्ध नहीं होनेसे वह नहीं कहा है । तथा इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहनेका कारण यह है कि जिस जीवने इनकी उपशमसम्यक्त्वमें बन्धव्युच्छित्ति की, वह पुनः इनका बन्ध अन्तमुहूर्त कालके बाद ही करता है । मनुष्यगतिपञ्चकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्वके अभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए तो यहाँ इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है और उपशमसम्यग्दृष्टि तिर्यञ्च और मनुष्यके इनका बन्ध नहीं होता, इसलिए उपशमसम्यक्त्वमें इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । यद्यपि उपशमसम्यग्दृष्टि देव और नारकियोंके इनका बन्ध होता है, पर वहाँ मिथ्यात्व के अभिमुख होने के पूर्वतक इनका अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध ही होता रहता है, इसलिए वहाँ भी इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल सम्भव नहीं है । आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहनेका कारण यह है कि जो प्रमत्तसंयम के अभिमुख जीव होता है, उसके इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । पुनः उसके अप्रमत्त होनेपर अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । इस प्रकार इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध हो जाता है । १. मूलप्रतौ श्रणु० जह० जह० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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