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पदणिक्खेवे समुक्कित्तणा
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मुहुमसं० छणं क० सव्वत्थोवा भुज० । अप्प० सं० गु० । [श्रवद्विद० संखेज्जगु० ] | अरणाहार० कम्मइगभंगो | एवं अपाबहुगं समत्तं ।
पदणिक्खेवो
३४३. पदरिक्खेवेत्ति तत्थ इमाणि तिरिण अणियोगद्दाराणि - समुक्कित्तणा सामित्तं अप्पाबहुगे त्ति ।
समुक्कित्तणा
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३४४. समुत्तिणं दुविधं - जहरणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । दुवि०ओघे० दे० । श्रघे० सत्तणं क० अत्थि उकस्सिया वडी उक्क० हाणी उक० अवारणं । एवं याव अरणाहारग त्ति दव्वं ।
३४५. जहण्णए पगदं । दुवि० - श्रघे० दे० । श्रघे० सत्तएां क० अत्थि
जीवों में छह कम भुजगारपदका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अल्पतर पदका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थितपदका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं । अनाहारक जीवों में सात कर्मोंके अपने पदोंका अल्पबहुत्व कार्मणकाययोगवालोंके समान है ।
इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । पदनिक्षेप
३४३. अब पदनिक्षेपका अधिकार है। इसके ये तीन अधिकार हैं- समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व ! विशेषार्थ - यहाँ 'पद' शब्द से वृद्धि, हानि और श्रवस्थान इन तीन पदोंका ग्रहण किया गया है। ये तीनों पद उत्कृष्ट भी होते हैं और जघन्य भी । आशय यह है कि इस अनुयोगद्वार में यह बतलाया गया है कि कोई एक जीव यदि प्रथम समय में अपने योग्य जघन्य स्थितिबन्ध करता है और दूसरे समय में वह स्थितिको बढ़ाकर बन्ध करता है, तो उसके बन्धमें अधिकसे अधिक कितनी वृद्धि हो सकती है और कमसे कम कितनी वृद्धि हो सकती है । इसी प्रकार यदि कोई जीव उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर रहा है और अनन्तर समयमें वह स्थितिको घटा कर बन्ध करता है, तो उस जीवके बन्धमें अधिक से अधिक कितनी हानि हो सकती है और कमसे कम कितनी हानि हो सकती है, यही सब विषय इस प्रकरण विविध अनुयोगोंके द्वारा दिखलाया गया है । वृद्धि और हानि होनेके बाद जो अवस्थित बन्ध होता है, उसे यहाँ अवस्थित बन्ध कहा है । यह जिस प्रकारकी वृद्धि और हानिके बाद होता है, उसका वही नाम पड़ता है ।
समुत्कीर्तना
३४४. समुत्कीर्तना दो प्रकारकी है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोघ्र और श्रादेश । श्रोध की अपेक्षा सात कर्मोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट श्रवस्थान है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक कथन करना चाहिए ।
३४५. जघन्यका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका - ओघ और
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