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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
जहरिया बढी [जहरिया हारणी] जह० अवद्वारणं । एवं याव अणाहारगत्ति दव्वं । सामित्तं
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३४६. सामित्तं दुवि० – जहणणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । दुवि० - श्रघे ० आदे० । श्रघेण सत्तणं क० उकस्सिया वड्डी कस्स होदि । याव दुहारिणययव मज्झस्स उवरिं अंतोकोडाको डिडिदिबंधमारणो उक्कस्यं संकिलेसं गदो उक्कस्यं दाहं गदो तो उक्कस्यं द्विदिबंधो तस्स उक्कस्सिया बढी । उक्कस्सिया हाणी कस्स १ यो उक्कस्सहिदिबंधमाणो मदो एइंदियो जादो तपाओग्गजहराए पदिदो तस्स उक्कस्सिया हाणी | उक्क० अवद्वाणं कस्स होदि ? उक्कस्सयं द्विदिबंध माणो सागारक्खएण पडिभग्गो तप्पात्रोग्गजहराए हिदिबंधहाणे पडिदो तस्सेव से काले उक्क - स्यमवहाणं । एवमोघभंगो कायजोगि - कोधादि ० ४-मदि० - सुद० - असंज० - अचक्खुर्द ०भवसि० - अब्भवसि ० -मिच्छादि ० - आहारग ति ।
आदेश । श्रधकी अपेक्षा सात कर्मोंकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य श्रवस्थान है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक कथन करना चाहिए ।
इस प्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई । स्वामित्व
३४६. स्वामित्व दो प्रकारका है-ज
- जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— श्रोध और आदेश । ओकी अपेक्षा सात कर्मोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो दोस्थानिक यवमध्य के ऊपर अन्तकोटा कोटिसागरप्रमाण स्थितिका बन्ध करता हुआ उत्कृष्टसंक्लेश और उत्कृष्ट दाहको प्राप्त होकर अनन्तर उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है, उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है । उत्कृष्ट हानि किसके होती है । जो उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हुए मर कर एकेन्द्रिय हो गया और वहां तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्ध करने लगता है, उसके उत्कृष्ट हानि होती है । उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? जो उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हुए साकार उपयोगके न रहने से संक्लेश परिणामोंसे च्युत होकर तत्प्रायोग्य जघग्य स्थितिबन्धस्थानको प्राप्त होता है, उसके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है । इस प्रकार श्रोघके समान काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी श्रुताशानी, असंयत, श्रचक्षुदर्शनी, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और श्राहारक जीवोंके जानना चाहिए ।
विशेषार्थ—यहां बन्धस्थितिकी वृद्धि, हानि और अवस्थानकी पदनिक्षेप संज्ञा है और जिस अनुयोगद्वार में इसका विचार किया जाता है, वह पदनिक्षेप अनुयोगद्वार है । यह वृद्धि, हानि और श्रवस्थान जघन्य भी होता है और उत्कृष्ट भी होता है। यहां सर्वप्रथम उत्कृष्टका विचार करते हुए वह किसके होता है; यह बतलाया गया है । संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टिके जघन्य स्थितिबंध अन्तःकोटाकोटिसागरप्रमाण होता है और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण होता है । अब एक ऐसा जीव लो जो जघन्य स्थितिका बन्ध करते हुए उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य परिणामोंके होने पर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करने लगता है, तो यह स्थितिबन्धकी उत्कृष्ट वृद्धि होगी । यह उत्कृष्ट वृद्धि स्वस्थानमें ही सम्भव है, परस्थान में सम्भव नहीं, इसलिए यहां स्वस्थान की अपेक्षा उत्कृष्ट वृद्धि बतलाई
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