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________________ पदणिक्खेवे उक्कस्ससामित्तं १७७ ३४७. आदेसेण गैरइएमु सत्तएणं क० उक्कस्सिया वड्डी-अवहाणे ओघ । उक्कस्सिया हाणी कस्स होदि ? यो उक्कस्सयं हिदि बंधमाणो सागारक्वएण पडिभग्गो तप्पाओग्गजहएणए पडिदो तस्सेव उक्कस्सिया हाणी। एवं सव्वणिरय-पंचिंदिय० तिरिक्व०३-मणुस०३ देवा याव सहस्सार त्ति पंचिंदिय-तस०२-पंचमण-पंचवचि०ओरालि०-वेउव्वि०-इत्थि०-पुरिस०-णवूस०-विभंग०-चक्खुदं०-पंचले०-सणिण त्ति। ३४८. पंचिदियतिरिक्वअपज्ज. सत्तएणं क० उक्क० वड्डी कस्स० ? यो तप्पाओग्गजहएणयं हिदि बंधमाणो तप्पाअोग्गउक्कस्सयं संकिलेसं गदो तप्पाअोग्गउक्कस्सयं हिदिबंधो तस्स उक्कस्सिया वड्डी । उक्कस्सिया हाणी कस्स होदि ? यो तप्पाओग्गउक्कस्सियं हिदि बंधमाणो सागारक्खएण पडिभग्गो तपाओग्गजहएणए पदिदो तस्स उकस्सिया हाणी । तस्सेव से काले उक्कस्सयमवहाणं । एवं मणुसगई है। किन्तु उत्कृष्ट हानि परस्थानकी अपेक्षा प्राप्त होती है । कारण कि जो संक्षी पञ्चेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि पर्याप्त जीव उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर रहा है,वह मरकर एकेन्द्रिय भी हो सकता है और वहां एकेन्द्रियके योग्य जघन्य स्थितिबन्ध करने लगता है। इस प्रकार उत्कृष्ट वृद्धि अन्तःकोडाकोडी कम सत्तर कोडाकोडी सागर प्रमाण प्राप्त होती है और उत्कृष्ट हानि पल्यके असंख्यातवें भागसे न्यून एक सागर कम सत्तर कोडाकोड़ी सागरप्रमाण प्राप्त होती है । जो उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हुए साकार उपयोगके क्षय होनेसे तत्प्रायोग्य जघन्य स्थिति बाँध कर दूसरे समयमें पुनः उसी स्थितिका बन्ध करता है, उसके उत्कृष्ट अवस्थान होता है । परस्थानमें यह उत्कृष्ट अवस्थान सम्भव न होनेसे स्वस्थानको अपेक्षा ही इसका निर्देश किया है। शेष व्याख्यान स्पष्ट है। ३४७. श्रादेशकी अपेक्षा नारकियोंमें सात कौकी उत्कृष्ट वृद्धि और उत्कृष्ट अवस्थान ओधके समान है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हुए साकार उपयोगका क्षय होनेसे संक्लेश परिणामोंकी हानि होकर तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करता है, उसीके उत्कृष्ट हानि होती है । इसी प्रकार सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च त्रिक मनुष्य त्रिक, देव, सहस्रार कल्पतकके देव, पञ्चेन्द्रियद्विक, प्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, विभङ्गशानी, चक्षुदर्शनी, पाँच लेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ-पहले ओघकी अपेक्षा परस्थानका अवलम्बन लेकर उत्कृष्ट हानि बतलाई थी। यहाँ जो मार्गणा विवक्षित हो उसीमें उत्कृष्ट हानि लाना इष्ट है, इसलिए उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कराते हुए तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्ध करा कर यह उत्कृष्ट हानि लाई गई है। यहाँ जितनी मार्गणाऐं गिनाई गई हैं इन सबमें संशी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि अवस्था सम्भव होनेसे उनकी अपेक्षा यह कथनी करनी चाहिए । ३४८. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों में सात कर्मोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करते हुए तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है, उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हुए साकार उपयोग का क्षय होनेसे संक्लेश परिणामोंकी हानिवश तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करने लगता है,उसके उत्कृष्ट हानि होती है। तथा इसीके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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