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________________ १७८ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे रवह त्ति पज्ज० आणदादि उवरि सव्वएइंदिय-विगलिंदिय-पंचिंदियतसअपज्ज०-सव्वपंचका० ओरालियमि० वेडव्वियमि० श्राहार० - आहारमि० - आभि०सुद० अधि० - मणपज्ज० - संजद - सामाइ० - छेदोव० - परिहार० - संजदासंजद- प्रोधिदं०सुक्कले ०- सम्मादि ० - खड्ग ० - वेदग०-उवसमस० - सासरण० - सम्मामि० । तप्प ३४६. कम्मइ०-अणाहार० सत्तएां क० उक्कस्सिया वडी कस्स होदि ? यो जयं हिदि बंधमाणो तपाओगउकस्सयं संकिलेसं गदो तप्पाकस्यं द्विदिबंधो तस्स उक्कस्सिया वडी । उक्कस्सिया हारणी कस्स होदि ? यो पागकस्यं हिदि बंधमारणो सागारक्खए पडिभग्गो तप्पा ओग्गजहrue पदिदो तस्स उक्क० हाणी । उक्कस्सयमवद्वाणं कस्स होदि ? बादरएइंदियस्स तपारगडिदीदो हाणी उकस्सयं कादूर अवदिस्स तस्सेव से काले उक्कस्सयमवद्वाणं | ३५०. [अवगदवे०] सत्तएां क० उक्क० वड्डी कस्स होदि ? जवसामगस्स परिदमास्स यट्टिवादर सांपराइयस्स से काले सवेदो होहिदि ति तस्स उक्क० बड्डी । तस्सेव से काले उक्कस्सयमवद्वाणं । उक्कस्सिया हाणी कस्स होदि ? उवसामयइसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थ सिद्धि तक के देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त सब पाँचों स्थावर काय, श्रदारिक मिश्रकाययोगी, वैकियिक मिश्र काययोगी, आहारककाययोगी, आहारक मिश्र काययोगी, श्रभिनिबोधिकशानी, श्रुतज्ञानी, श्रवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ - इन सब मार्गणाओं में आदेशसे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । दूसरे यहाँ उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थानका जो कारण बतलाया है, वह सबमें घटित हो जाता है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्तकोंके समान कहा है । ३४९. कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करते हुए तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है, उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है । उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हुए साकार उपयोगके क्षय होने से संक्लेश परिणामोंकी हानिवश तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करता है, उसके उत्कृष्ट हानि होती है । उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? जो बादर एकेन्द्रिय तत्प्रायोग्य उकृष्ट स्थितिमेंसे उत्कृष्ट हानि करके अवस्थित रहता है, उसके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट श्रवस्थान होता है । ३५०. गतवेदी जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो उपशामक पतनको प्राप्त होता हुआ अनिवृत्तिवादर साम्परायको प्राप्त होकर अनन्तर समयमें वेदसहित होगा, उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है और उसीके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट श्रवस्थान होता है । उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो उपशामक अनिवृत्तिबादर साम्पराय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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