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________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधकालपरूषणा ३३९ बेसाग. सादि० । तित्थय० उक्क० जह• एग०, उक्क० अंतो० । अणु० जह० एग०, उक्क० बेसाग० सादि। सादादिछ -तिरिक्खगदि-देवगदि-एइंदि०-वेउवि०आहार०-पंचसंठा०-दोअंगो०-पंचसंघ०-दोआणु०-आदाउज्जो०-अप्पसत्थ०-थावरथिराथिर-सुभासुभ-भग-दुस्सर-अणादे-अजस०-णीचा० उक० अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । एवं पम्माए वि । णवरि अटारस सागरोवमाणि सादि । एइंदि० आदाव थावरं वज्ज । १७५. मुक्काए पंचणा-लसणा-वारसक-पुरिस०-भय-दुगु-मण सग०पंचिंदि०-तिएिणसरीर-समचदु०-ओरालि अंगो०-वज्जरिसम-विएण]४-मणुसाणु०अगुरु०४-पसत्यवि०-तस-सुभग-सुस्सर-आदे--णिमि०-तित्थय०-उच्चा०-पंचंत. उक्क० ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं साग. सादि । एवरि मणुसगदिपंचगस्स अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० । थीणगिद्धितियं मिच्छत्तं अणंताणुवंधि०४ उक्क० ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क० एक्कत्तीसं और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओधके समान है। अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल साधिक दो सागर है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल साधिक दो सागर है। साताप्रादि छह.तिर्यञ्चगति.देवगति,एकेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर,पांच संस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति और नीचगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार पनलेश्यामें भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पद्मलेश्यामें प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्टकाल साधिक अठारह सागर है । तथा इस लेश्यावाले जीवोंके एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता। विशेषार्थ-पीत और पप्रलेश्या में अपने-अपने कालको ध्यानमें रखकर प्रथम दण्डक में कही गई प्रकृतियोंके व तीर्थङ्कर प्रकृतिके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कहा है। मात्र यह काल सम्यग्दृष्टि जीवके ही प्राप्त होगा। क्योंकि सम्यग्दृष्टि के ही इन प्रकृतियोंका इतने कालतक निरन्तर बन्ध सम्भव है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १७५. शुक्ललेश्यामें पाँच शानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, तीनशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक, आलोपाल, वर्षमनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुखर, आदेय, निर्माण, तीर्थंकर, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रोधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यगति पञ्चकके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल अोधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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