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________________ ३३८ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे तित्थय ० ० उक्क० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अणु० जह० उक्क० अंतो० । वरि काऊए अणु० जह० अंतो०, उक्क० तिरिण सा० सादि० १७४. तेऊए धुविगाणं पुरिस०- मणुस ० - समचदु० - वज्जरिसभ० मणुसाणु ०पसत्थवि०-सुभग- सुस्सर आदे० उच्चा० उक्क० ओघं । अ० जह० एग०, उक्क० चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यञ्चगतित्रिकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल साता प्रकृतिके समान है। तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि कापोत लेश्यामें अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन सागर है । विशेषार्थ -- कृष्ण लेश्याका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर होनेसे इसमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है । सातावेदनीय श्रदि ४४ प्रकृतियाँ सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ होनेसे इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । पुरुषवेद आदि १० प्रकृतियोंका सातवें नरक में सम्यग्दृष्टिके नियमसे बन्ध होता है और वहाँ सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है । तिर्यञ्चगति आदि १२ प्रकृतियोंका सातवें नरकमें मिथ्यादृष्टि नारकीके नियमसे बन्ध होता है और यहाँ मिथ्यात्वका उत्कृष्टकाल तेतीस सागर है । तथा जो जीव सातवें नरक जानेके सम्मुख होता है, उस जीवके नरकमें जानेके पूर्व व निकलनेके पश्चात् एक एक अन्तर्मुहूर्त कालतक कृष्ण लेश्या ही होती है। इसलिए उक्त प्रकृतियोंका इस कालमें भी बन्ध होता रहता है । यही कारण है कि इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर कहा है। कृष्ण लेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध मनुष्यके ही सम्भव है और मनुष्य के इसका काल अन्तर्मुहूर्त है । इसीसे इस प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। नील लेश्या और कापोत लेश्यामें इसी प्रकार जानना चाहिए । इस कथनका यह श्राशय है कि नील लेश्या और कापोत लेश्यामें सब प्रकृतियोंका काल अपने-अपने कालको ध्यान में रखकर इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र इन लेश्या वाले नरकों में मिथ्यादृष्टिके मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भी बन्ध होता है, इसलिए इन लेश्याओं में तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र इन तीन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल जिस प्रकार साता प्रकृतिका कहा है, उसी प्रकार जानना चाहिए | क्योंकि इन लेश्या वाले नरकोंमें इनकी प्रतिपक्षभूत मनुष्यगतित्रिकका भी मिथ्यादृष्टिके बन्ध होता है, इसलिए इनका साता प्रकृतिके समान ही काल उपलब्ध होता है। नील लेश्यामें भी तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध मनुष्यगतिमें ही सम्भव है, इसलिए नील लेश्यामें तीर्थकर प्रकृतिकें अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । किन्तु कापोत लेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध नरकगतिमें भी होता है, इसलिए इस लेश्यामें इसके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तीन सागर कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । १७४. पीत लेश्यामें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ, पुरुषवेद, मनुष्यगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, मनुष्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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